शनिवार

समाजीकरण (Socialization)


बालक में जन्म के समय किसी भी मानव समाज का सदस्य बनने की योङ्गयता नहीं होती हैं। वह एक जैविकीयप्राणी के रूप में संसार में आता है तथा रक्त, मांस व हड्डियों का एक जीवित पुतला होता है। उसमें अंदर किसी प्रकार के सामाजिक गुणों का समावेश नहीं होता है। वह न तो सामाजिक होता है... न तो असामाजिक... और न तो समाज विरोधी...। समाज के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, मूल्यों एवं संस्कृतियों से भी अनजान होता है। वह नहीं जानता है कि उसे किसके प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए तथा समाज के लोग उससे कैसी अपेक्षा रखता है। बालक कुछ शारीरिक क्षमताओं के साथ पैदा होता है। इन क्षमताओं के कारण ही बहुत कुछ सीख लेता है तथा समाज का क्रियाशील सदस्य बन जाता है। सामाजिक सम्पर्क के कारण सीखने की क्षमता व्यावहारिक रूप धारण करती है। उदाहरणार्थ, मानव में भाषा का प्रयोग करने की क्षमता होती है, जो समाज के सम्पर्क में आने से ही व्यावहारिक रूप ग्रहण करती है। सामाजिक सम्पर्क के कारण ही मानव समाज के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, मूल्यों, विश्वासों, संस्कृतियों एवं सामाजिक गुणों को सीखता है और एक सामाजिक प्राणी होने का दर्जा प्राप्त करता है। सामाजिक सीख की इस प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहते हैं। 

समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Socialization)
समाजीकरण वह प्रविधि है, जिसके द्वारा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जाता है। इसके माध्यम से मानव अपने समूह एवं समाज के मूल्यों, रीति-रिवाजों, लोकाचारों, आदर्शो एवं सामाजिक उद्देश्यों को सीखता है। दूसरे शब्दों में समाजीकरण एक प्रक्रिया है,  जिसके द्वारा मानव को सामाजिक -सांस्कृतिक संसार से परिचित कराया जाता है। इस संदर्भ में समाजीकरण की कुछ प्रचलित परिभाषाएं निम्रलिखित हैं :- 

  • ए. डब्ल्यू. ग्रीन के अनुसार- समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन और व्यक्तिव को प्राप्त करता है।
  • गिलिन और गिलिन के अनुसार- समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति, समूह में एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्यविधियों में समन्वय स्थापित करता है, उसकी परम्पराओं को ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करके अपने साथियों के प्रति सहनशक्ति की भावना विकसित करता है।
  • किम्बाल यंग के अनुसार- समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रवेश करता तथा समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है और जिसके द्वारा उसे समाज के मूल्यों और मानकों को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है। 
  • एच.एम. जॉनसन के अनुसार- समाजीकरण सीखने की वह प्रक्रिया है जो सीखने वाले को सामाजिक भूमिकाओं का निर्वाह करने योङ्गय बनाती है।
  • न्यूमेयर के अनुसार- एक व्यक्ति के सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया का नाम समाजीकरण है।
        उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि- समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव अपने समूह अथवा समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण करके अपने व्यक्तित्व का विकास करता है और समाज का क्रियाशील सदस्य बनता है। समाजीकरण द्वारा बच्चा सामाजिक प्रतिमानों को सीखकर उनके अनुरूप आरण करता है, इससे समाज में नियंत्रण बना रहता है।
स्वीवर्ट एवं ङ्गिलन ने समाजीकरण के तीन तत्वों को आवश्यक बतलाया हैं। पहला- अंत:क्रिया, दूसरा-भावनात्मक स्वीकृति और तीसरा- संचार व भाषा। दूसरे व्यक्तियों के साथ अंत:क्रिया के दौरान मानव सही व्यवहार करना सीखता है। वह यह भी सीखता है कि किस प्रकार के व्यवहारों को समाज द्वारा स्वीकृत प्राप्त है और किस प्रकार के व्यवहार प्रतिबंधित हैं। इस दौरान वह अपने अधिकारों, दायित्वों तथा कर्तव्यों को भी सीखता है। सीखने का कार्य संचार व भाषा द्वारा सरलता से किया जाता है। चूंकि मानव एक भावनात्मक और बौद्धिक प्राणी होता है, अत: वह प्रेम पाने व प्रेम प्रदान करने का अनुभव भी प्राप्त करता है। भावनात्मक वातावरण में समाजीकरण शीघ्र होता है। इस प्रकार समाजीकरण के लिए उक्त तीनों तत्वों की आवश्यकता होती है।

संचार में बाधा (Barriers of Communication)

 संचार प्रक्रिया में बाधा एक प्रकार का अवरोध है, जो संदेश के प्रभाव को कमजोर कर देता है। परिणामत: संदेश को ग्रहण करने व उसके अर्थ को समझने में प्रापक को तथा समझाने में संचारक को परेशानी होती है। इसमें विकृत फीडबैक मिलता है। दूसरे अर्थो में, संचार प्रक्रिया के दौरान संचारक चाहता है कि उसके द्वारा सम्प्रेषित संदेश शत-प्रतिशत प्रापक तक पहुंचे तथा वह उसकी व्याख्या उन्हीं अर्थो में करें, जिसको ध्यान में रखकर संदेश की संरचना व सम्प्रेषण की गयी है। इस प्रक्रिया में कोई न कोई बाधा अवश्य आती है। यह बाधा निम्नलिखित हो सकती है :-
                 (A)  शारीरिक बाधा  (Physical Barriers)
                 (B)   भाषाई बाधा (Language Barriers)
                 (C)  सांस्कृतिक बाधा (Cultural Barriers)
                 (D)  भावनात्मक बाधा (Emotional Barriers)
                 (E)  अवधारणात्मक बाधा (Perceptual Barriers)   

(A) शारीरिक बाधा : इसका तात्पर्य संचारक और प्रापक में शारीरिक अक्षमता से है, जिसके कारण संदेश को सम्प्रेषित करने या ग्रहण करने या अर्थ को समझने में बाधा उत्पन्न होती है। संचार प्रक्रिया में संदेश के प्रभाव को कमजोर करने वाली प्रमुख शारीरिक बाधाएं निम्नलिखित हैं :-
  1. उच्चारण क्षमता का कमजोर होना : मौखिक संचार प्रक्रिया में संचार के उच्चारण क्षमता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। संचारक की उच्चारण क्षमता कमजोर या अस्पष्ट होने की स्थिति में संदेश का सम्प्रेषण वास्तविक रूप में नहीं हो जाता है, जिससे संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है। कई बार उच्चारण क्षमता में निपुर्ण संचारक भी कठीन शब्द का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाता है, जिसके चलते संदेश के वास्तविक अर्थ को समझने में परेशानी होती है। 
  2. श्रवण क्षमता का कमजोर होना : मौखिक संचार प्रक्रिया के तहत सम्प्रेषित संदेश को सुनने के लिए प्रापक में श्रवण क्षमता का होना आवश्यक है। ऐसा न होने की स्थिति में संचारक संदेश सम्प्रेषण के दौरान चाहे जितना भी सरल व स्पष्ट शब्दों का प्रयोग करें या तेज आवाज में बोले, लेकिन प्रापक उसके संदेश को शत-प्रतिशत ग्रहण नहीं कर सकता है, अर्थात... श्रवण क्षमता कमजोर होने के कारण संचार में बाधा उत्पन्न होती है। 
  3. दृश्य क्षमता का कमजोर होना : लिखित संचार में दृश्य क्षमता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। प्रापक में दृश्य क्षमता के कमजोर होने से संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है तथा संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश को प्रापक शत-प्रतिशत ग्रहण नहीं कर पाता है। मोटे-मोटे अक्षरों में लिखें संदेश को पढक़र समझ लेता है, लेकिन छोटे अक्षरों में लिखें संदेश को न तो पढ़ पाता है और न तो समझ पाता है। 

(B) भाषाई बाधा : इसका तात्पर्य उन अवरोधों से है, जिनका सम्बन्ध भाषा से होता है। मरफ  और पैक के अनुसार- शब्दकोष में रन (Run) शब्द के 110 अर्थ है। इनमें 71 क्रिया, 35 संज्ञा तथा 4 विश्लेषण के रूप में हैं। ऐसी स्थिति में संचारक जिस अर्थ में रन शब्द का प्रयोग किया होता है, उस अर्थ को प्रापक समझ लेता है तो संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न नहीं होता है। इसके विपरीत, यदि गलत अर्थ समझता है तो भाषाई बाधा उत्पन्न होता है। भाषाई बाधा निम्नलिखित हैं :- 
  1. भाषा का अल्प ज्ञान होना : समाज में कई प्रकार की भाषाएं प्रचलित है। यह जरूरी नहीं है कि एक व्यक्ति को सभी भाषाओं का ज्ञान हो, अर्थात... भाषाओं का अल्प ज्ञान होने से भी संचार में बाधा उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ, कोई वरिष्ठ अधिकारी मूलत: तमिलनाडू का निवासी होने के कारण हिन्दी या अंग्रेजी के साथ तमिल भाषा बोलने का आदती हो। ऐसे में वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को मौखिक संचार के माध्यम से संदेश देगा तो भाषाओं के अल्प ज्ञान के कारण संचार में बाधा उत्पन्न होगी।
  2. दोषपूर्ण अनुवाद होना : वर्तमान समय में अत्याधुनिक संचार माध्यमों (ई-मेल, ई-फैक्स, ई-प्रिंट इत्यादि) पर विविध भाषाओं में सूचनाओं का प्रवाह हो रहा है, जिसे ग्रहण करने के लिए अल्प भाषी को अनुवाद करना पड़ता है। दोषपूर्ण अनुवाद होने की स्थिति में सूचना का वास्तविक अर्थ परिवर्तित हो जाता है। अत: संदेश का दोषपूर्ण अनुवाद होने से संचार में भाषाई बाधा उत्पन्न होती है।
  3. तकनीकी भाषा का ज्ञान न होना : यह आम लोगों की नहीं बल्कि खास लोगों की भाषा होती है, जिसका उपयोग अक्सर कार्य क्षेत्र में किया जाता हैं। यदि खास लोग अपनी तकनीकी भाषा में संदेश सम्प्रेषित करते हैं तो आम लोगों को समझ में नहीं आता है, जिससे संचार के दौरान बाधा उत्पन्न होती है। 
(C) सांस्कृतिक बाधा: समाज में संस्कृतिक दृष्टि से भाषा, परम्परा व खान-पान में काफी विधिता है। खास तौर से पुरानी और आधुनिक पीढ़ी के बीच, जिसके चलते संचार के दौरान अवरोध का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह अवरोध निम्नलिखित हो सकते हैं:- 
  1. बोलचाल: पुरानी पीढ़ी के लोगों बोलचाल के दौरान परम्परागत शब्द का उपयोग करते हैं, जबकि आधुनिक पीढ़ी के लोगों तकनीकी व नवीन शब्दों को, जिसके कारण एक दूसरे के साथ संचार स्थापित करने में बाधा उत्पन्न होती है तो उसे सांस्कृतिक बाधा कहते हैं। 
  2. परम्परा: पुरानी पीढ़ी और आधुनिक पीढ़ी की सांस्कृतिक परम्परा में काफी अंतर है। पुरानी पीढ़ी के लोग एक-दूसरे से मिलते समय यथाउचित अभिवादन जैसे बड़ो का पैर छूना इत्यादि पसंद करते हैं, जबकि आधुनिक पीढ़ी के लोग हाथ मिलाकर हेलो बोलना तथा गले मिलना पसंद करते हैं, जिसमें बड़े-छोटे का भेद नहीं होता है। इस प्रकार, दोनों पीढिय़ों की सांस्कृतिक परम्पराएं अलग-अलग हैं, जिससे संचार के दौरान बाधा उत्पन्न होती है तो उसे सांस्कृतिक बाधा कहते हैं।
  3. खान-पान: पुरानी पीढ़ी के लोगों को खान-पान में परम्परागत भोजन व पेय पदार्थ- चावल, दाल, रोटी, सब्जी, दूध इत्यादि पसंद होता है, जबकि आधुनिक पीढ़ी को फास्ट फूड और कोल्ड ड्रिंक, जिसके चलते खान-पान की दृष्टि से दोनों पीढिय़ों के बीच संचार में बाधा उत्पन्न होती है तो उसे सांस्कृतिक बाधा कहते हैं।
(D) अवधारणात्मक बाधा: इसका तात्पर्य उन अवरोधों से है, जिसका सम्बन्ध अवधारणा से होता है। इसका निर्माण मानव समय, काल एवं परिस्थिति के अनुसार करता है। अवधारणा में कई प्रकार की कमियां रह जाती है, जिससे संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है। इन बाधाओं को अवधारणात्मक बाधा कहते हैं, जो निम्नलिखित हैं:-    
  1. ध्यान न देना: संचार प्रक्रिया के दौरान संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश में प्रापक की अभिरूचि नहीं होती है, जिसके चलते वह मौखिक संचार में शारीरिक रूप से उपस्थित होता है, किन्तु मानसिक रूप से अनुपस्थित। लिखित संचार के दौरान भी सामान्यतरू लम्बी-लम्बी रिपोर्टाे, सरकुलर पत्रों, नोटिसों व बुलेटिनों को प्रापक नजर अंदाज कर देते हैं, जिससे अवधारणात्मक बाधा उत्पन्न होती है।
  2. पूर्वाग्रह का होना: संचारक के प्रति पूर्वाग्रह होने की स्थिति में भी प्रापक उसके संदेश पर ध्यान कम देता है या नहीं देता है। भले से सम्प्रेषित संदेश प्रापक के हित में ही क्यों न हो। इस प्रकार संचारक के प्रति पूर्वाग्रह होने के कारण भी संचार प्रक्रिया में अवधारणात्मक बाधा उत्पन्न होती है।  
  3. समय पूर्व मूल्यांकन: संचार प्रक्रिया में ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं, जब संचारक अपने संदेश के प्रारंभिक अंशों को ही सम्प्रेषित किया होता है, जिसके आधार पर प्रापक बाद के अंशों का मूूल्यांकन करने लगता है, जिससे संदेश का अर्थ गलत निकलने लगता है। इस प्रकार अवधारणात्मक बाधा उत्पन्न होती है।  
(E) भावनात्मक बाधा: इसका तात्पर्य संचारक और प्रापक की भावनात्मक स्थिति से है, जिसके चलते संचार प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होती है तो उसे भावनात्मक बाधा कहते हैं। 

संचार के 7Cs (7Cs of Communication)

 मानव जीवन की अनिवार्य आवश्कताओं में सबसे प्रमुख है- 'संचार'। इसके अभाव में मानव जीवन पशु समतुल्य होता है। मानव कभी घर के अंदर, तो कभी घर के बाहर, कभी कार्यालय में, तो कभी दुकान में, कभी बस स्टैण्ड में, तो कभी चलती ट्रेन में, कभी परिजनों के साथ, तो कभी सहकर्मियों के साथ, कभी ग्राहकों के साथ, तो कभी वरिष्ठ अधिकारियों के साथ, कभी मौखिक, तो कभी लिखित, कभी शब्दों में, तो कभी संकेतों में संचार करता है। संचार विशेषज्ञ 'फ्रांसिस बेटजिन' ने प्रभावी संचार के लिए 7Cs को महत्वपूर्ण बताया है, जिसका उपयोग कर संचारक बड़े ही आसानी से प्रापक के मस्तिष्क में अपनी बात (संदेश) को पहुंचा सकता है। 7Cs से तात्पर्य है :-

          1Cs Clarity  (स्पष्टता) 
          2Cs  Context (संदर्भ)
          3Cs  Continuty (निरंतरता)
          4Cs Credibility (विश्वसनीयता) 
          5Cs  Content (विषय वस्तु) 
          6Cs  Channel  (माध्यम)
          7Cs  : Completeness (पूर्णता) 

  1. स्पष्टता : वह संदेश प्रापक को आसानी से समझ में आता है जिसमें स्पष्टता होती है। अत: सम्प्रेषण के लिए संदेश की संरचना सरल से सरल तथा सामान्य से सामान्य शब्दों में करना चाहिए। सरल व सामान्य शब्दों में सम्प्रेषित संदेश के अर्थो को समझने में प्रापक को परेशानी नहीं होती है। संचारक से प्रापक स्पष्ट शब्दों में संदेश सम्प्रेषित करने की अपेक्षा भी रखता है। यहीं कारण हैं कि उलझाऊ तथा मुहावरा युक्त संदेश को प्रापक नजर अंदाज कर देता है। 
  2. संदर्भ : संदेश में संदर्भ का होना आवश्यक है, क्योंकि संदर्भ से स्वत: ही संदेश की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। संदर्भ के कारण संदेश में गलती होने की संभावना कम होती है। यदि किसी कारण से गलती हो भी जाती है तो वह आसानी से पकड़ में आ जाती है। संदर्भ के कारण सम्बन्धित पक्ष की सहभागीता भी सिद्ध होती है। 
  3. निरंतरता : संचार कभी समाप्त न होने वाली एक अनवरत् प्रक्रिया है, जिसके संदेश में एक साथ कई तथ्यों का समावेश होने की स्थिति में निरंतरता का होना आवश्यक है। यहां निरंतरता से तात्पर्य मुख्य तथ्य के बाद क्रमश: कम महत्वपूर्ण, उससे कम महत्वपूर्ण, सबसे कम महत्वपूर्ण तथा अंत में बगैर महत्व के तथ्य से है। प्रभावी संचार के लिए आदर्श संदेश वह होता है, जिसमें महत्वपूर्ण तथ्यों की पुनर्रावृत्ति होती है। इसका लाभ यह है कि यदि पहली बार में संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश के अर्थ को किसी कारण से प्रापक समझ नहीं पता है तो दूसरी या तीसरी बार में अवश्य ही समझ लेता है।  
  4. विश्वसनीयता : संचार प्रक्रिया का मूल आधार विश्वास है, जो संचारक की नियत पर निर्भर करता है। संदेश के विश्वसनीय होने पर प्रापक के मन में संचारक के प्रति अच्छी छवि बनती है। एक समय ऐसा भी आता है, जब संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश की गारंटी प्रापक स्वयं दूसरों को देने लगता है। इस दृष्टि से खरा न उतरने वाले संचारकों को प्रापक शीघ्र ही नजर अंदाज करने लगते हैं। अत: प्रभावी संचार के लिए संदेश में विश्वसनीयता का होना आवश्यक है। 
  5. विषय वस्तु : प्रापकों का निर्धारण संदेश की विषय वस्तु के आधार पर भी किया जाता है। अत: आदर्श संदेश की विषय वस्तु प्रापकों की स्थिति, कला, संस्कृति आदि के अनुरूप तैयार करना चाहिये। इससे संचारक के प्रति प्रापक का विश्वास बढ़ता है। 
  6. माध्यम : संचार प्रक्रिया में माध्यम की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि परिस्थिति, प्रापक और संदेश के अनुसार माध्यम की प्रभावशीलता घटती-बढ़ती रहती है। अत: प्रभावी संचार के लिए माध्यम का चुनाव संदेश और प्रापक की स्थिति को ध्यान में रखकर करना आवश्यक है। संचारक को ऐसे माध्यम का चुनाव करना चाहिए, जिसकी प्रापक के बीच पहुंच होने के साथ-साथ लोकप्रियता भी हो। नये माध्यमों का चुनाव काफी सोच-विचार कर करना चाहिए। कई बार नये संचार माध्यम अप्रभावी साबित होते हैं। 
  7. पूर्णता : प्रभावी संचार के लिए संदेश में पूर्णता का होना आवश्यक है। यहां पूर्णता से तात्पर्य सम्पूर्ण जानकारी से है। जिस संदेश में पूर्ण या सम्पूर्ण जानकारी होती है, उसे ग्रहण करने के उपरांत प्रापक आत्म-संतोष महसूस करते हैं। 

शाब्दिक और अशाब्दिक संचार (Verbal and Non-Communication)

  
     संचार प्रक्रिया में शब्दों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके बगैर संदेश की संरचना और सम्प्रेषण संभव नहीं है। संदेश का सम्प्रेषण चाहे मौखिक हो या लिखित, दोनों ही परिस्थितियों में शब्दों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। शब्दों के आविष्कार से पूर्व मानव प्रतिक चिन्हों तथा अपनी भाव-भंगिमाओं के माध्यम से संदेश सम्प्रेषण करता था। इस आधार पर संचार मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं- पहला, शाब्दिक संचार और दूसरा, अशाब्दिक संचार।

शाब्दिक संचार 
(Verbal Communication)  

शाब्दिक संचार की प्रक्रिया काफी जटिल है। इसके बावजूद शाब्दिक संचार के माध्यम से मानव में बौद्धिकता का विकास होता है। मानवीय संचार में शब्दों का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है। लरनर के शब्दों में- मानव अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा संचार प्रक्रिया से गुजरता है, जिसमें स्वर द्वारा संचार को प्राथमिकता प्राप्त है। क्योंकि मानव किसी वस्तु के बारे में ज्ञानेन्द्रियों द्वारा चाहे जो भी सोचें व अनुभव करें, परंतु जब तक उसे शाब्दिक रूप नहीं देगा, तब तक उसका सम्पूर्ण विवरण दूसरों को सम्प्रेषित नहीं कर सकता है। तात्पर्य यह है कि शब्दों के अभाव में व्यापक संचार की कल्पना संभव नहीं है। शाब्दिक संचार दो प्रकार के होते हैं। पहला, मौखिक संचार और दूसरा, लिखित संचार।

(i) मौखिक संचार (Oral Communication) : वे सूचनाएं लिखित या लिपिबद्ध न होकर केवल जुबानी भाषा में प्रापक तक पहुंचती है, उसे मौखिक संचार कहते हैं। संचार की इस प्रक्रिया द्वारा संचारक एवं प्रापक के मध्य संवाद स्थापित होता है। एप्पले के अनुसार- मौखिक शब्दों द्वारा पारस्परिक संचार संदेश वाहन की सर्वश्रेष्ठ कला है। मौखिक संचार द्वारा सामूहिक ज्ञान व विचार का धीरे-धीरे विकास होता है। मौखिक संचार का उपयोग मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं दबंदर व तोता½ द्वारा भी किया जाता है। मौखिक संचार निजी अनौपचारिक तथा लचीला होता है, जो व्याकरणगत् तथा अन्य नियमों से बंधा नहीं होता है।

मौखिक संचार के माध्यम : मौखिक संचार के दौरान संदेश सम्प्रेषित करने के लिए यथाउचित माध्यम का होना जरूरी है। माध्यम का चुनाव करते समय परिस्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है, क्योंकि सभी माध्यम सभी परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं होते हैं। मौखिक संचार के प्रचलित माध्यम निम्नलिखित हैं :- 
(1) वार्तालॉप : सामान्यत: दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच विचारों के विनियम को वार्तालॉप कहते हंै। यह द्वि-मार्गीय प्रक्रिया है, जिसमें संचारक और प्रापक आमने-सामने बैठकर विचार-विमर्श करते हैं। इससे आपसी समझ विकसित होती है तथा दोनों को स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को व्यक्त करने का मौका मिलता है। व्यवसाय, विपणन, संगठन, संस्थान, सरकार में मौखिक संचार का विशेष महत्त्व है। गुरू-शिष्य, पति-पत्नी, मालिक-नौकर, वरिष्ठ-कनिष्ठ के बीच वार्तालॉप इसके उदाहरण हैं। 
(2) प्रेस सम्मेलन : इसके अंतर्गत् विभिन्न समाचार पत्रों, टीवी चैनलों तथा समाचार एजेंसियों के संवाददाताओं को आमंत्रित कर किसी घटना विशेष या जानकारी से अवगत कराया जाता है। संवाददाता सम्बन्धित घटना या जानकारी को प्रिंट माध्यमों में प्रकाशित तथा इलेक्ट्रॅानिक माध्यमों में प्रसारित करके जनता व सरकार तक पहुंचाते हैं। प्रेस सम्मेलन का आयोजन राजनीतिज्ञ, सरकार के प्रतिनिधि या लोक प्रशासक, शैक्षिक संस्थानों के प्रमुख आदि के द्वारा आयोजित किया जाता है। लोकतंत्र में प्रेस सम्मेलन को जनसंचार का शक्तिशाली माध्यम माना जाता है। 
(3) प्रदर्शन : प्रदर्शन भी मौखिक संचार का एक माध्यम है। इसका उपयोग औद्योगिक क्षेत्र में विपणन (मार्केटिंग) सम्बन्धी नीतियों के निर्धारण में किया जाता है। लोकतांत्रिक देशों में जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए प्रदर्शन का सहारा लिया जाता है। प्रदर्शन के माध्यम से सेल्समैन अपनी कम्पनी के उत्पाद की विशेषताओं को बतला कर उपभोक्ताओं में अभिरूचि पैदा करने का प्रयास करता है। विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों के सदस्य अपनी मांगों के संदर्भ में सरकार व उच्चाधिकारियों का ध्यान आकर्षित करने लिए प्रदर्शन करते हंै। 
(4) भाषण : मौखिक संचार में भाषण का महत्वपूर्ण स्थान है। भाषण के कई रूप होते हैं। अध्यापक के भाषण को व्याख्यान, उपदेशक के भाषण को प्रवचन कहा जाता है। भाषण कला संचार का एक शक्तिशाली माध्यम है, जो वक्ता (संचारक) और श्रोता (प्रापक) को आपस में जोडऩे का कार्य करता है। प्रभावपूर्ण भाषण में आत्मीयता, क्रमबद्धता, अभिनेयता, निर्भीकता आदि गुणों का समावेश आवश्यक होता है। 
(5) वाद-विवाद : जब किसी विषय के संदर्भ में लोगों के विचार अलग-अलग होते हैं। विचार-विमर्श के दौरान सम्बन्धित विषय के पक्ष में कुछ लोग अपना तर्क देते है तथा कुछ लोग विपक्ष में। सभी अपने-अपने तर्को से एक-दूसरे के विचारों का खण्डन-मण्डन करते हैें, तो इस प्रक्रिया को वाद-विवाद कहते हैं। वाद-विवाद भी मौखिक संचार का प्रभावशाली माध्यम है। 
(6) विचार गोष्ठी : यह व्याख्यान की छोटी श्रृंखला होती है। इसमें वक्ताओं की संख्या दो से पांच तक होती है। सहयोगी विषय से सम्बन्धित प्रश्न पूछते हैं, जिसका उत्तर अन्य सहयोगी देते हैं। वक्ताओं की संख्या के आधार पर विषय के विभिन्न पहलुओं को विभाजित किया जाता है। सभी वक्ता अलग-अलग पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त करते हंै। 
(7) पैनल वार्ता : पैनल वार्ता में विशेषज्ञों का छोटा समूह बड़े समूह से वार्ता करता है। इसमें एक संयोजक होता है, जो वार्ता में भाग लेने वाले सदस्यों का परिचय कराता है और वार्ता के सारांश को प्रस्तुत करता है। इसमें एक व्यक्ति अध्यक्ष या संयोजक की भूमिका का निर्वहन कर सम्पूर्ण वार्तालाप पर नियंत्रण रखता है।
(8) सम्मेलन : मौखिक संचार का एक माध्यम सम्मेलन भी है। सम्मेलन से तात्पर्य एक ऐसी बैठक से है, जिसे विचार-विमर्श के लिए आहूत की जाती है। सम्मेलन में किसी समस्या के समाधान के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों के विचारों को एकत्रित किया जाता है। जैसे- राजनीतिज्ञों, वरिष्ठ अधिकारियों और वैज्ञानिकों के विचार, जिससे किसी समस्या का समाधान किया जा सकता है। 

मौखिक संचार की विशेषताएं : 
(1) कम समय में अधिक लोगों के साथ संवाद संभव,  
(2) त्रुटियां होने की कम संभावना,
(3) समय की बचत,  
(4) विचार-विनिमय से व्यक्तिगत सम्बन्धों में मधुरता, 
(5) आपातकालीन परिस्थितियों में अत्यन्त उपयोगी, 
(6) द्रुतगति से संदेश का सम्प्रेषण,  
(7) कागज, कलम, कम्प्यूटर, टाइपराइटर व टाइपिस्ट की जरूरत नहीं, और 
(8) प्रापक से फीडबैक मिलने की पूरी संभावना होती है। 

 (ii)  लिखित संचार (Written Communication) : मौखिक संचार से संदेश सम्प्रेषण की संभव समाप्त होने की स्थिति में लिखित संचार एक महत्वपूर्ण माध्यम होता है। लिखित संचार से तात्पर्य ऐसी सूचनाओं से है जो शब्दों में तो होती है, लेकिन उसका स्वरूप मौखिक न होकर लिखित होती है। प्रभावी संचार के लिए लिखित संदेश में जहां स्पष्टता व शुद्धता आवश्यक है, वहीं व्याकरण सम्बन्धी नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता है। नोटिस, स्मरण पत्र, प्रस्ताव, शपथ पत्र, शिकायत पत्र, नियुक्ति पत्र, पदोन्नति पत्र, वित्तीय प्रारूप इत्यादि लिखित संचार के उदाहरण हैं। 

लिखित संचार के माध्यम : लिखित संचार माध्यमों का उपयोग विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं में सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए किया जाता है। इसके अभाव में संस्थागत नीतियों, योजनाओं तथा क्रिया-कलापों की जानकारी देना संभव नहीं है। लिखित संचार के प्रचलित माध्यम निम्नलिखित हैं :-
(1) सूचना पट्ट : यह लिखित संचार का सर्वाधिक प्रचलित माध्यम है, जिसे स्कूल-कालेज, सरकारी-गैर सरकारी विभागों के कार्यालयों में देखा जा सकता है। प्राय: सूचना पट्ट पर दैनिक सूचनाएं दी जाती है, जो संक्षिप्त होती हैं। ऐसी सूचनाओं को पढऩे और समझने में एक मिनट से अधिक का समय नहीं लगता है।   
(2) समाचार बुलेटिन: किसी संस्था, संगठन या विभाग के कार्यालय समाचारों की लिखित सूचना को समाचार बुलेटिन कहते हंै। कहीं समाचर बुलेटिन को सूचना पट्ट पर चस्पा कर दिया जाता है, तो कहीं गृह पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया जाता है। समाचार बुलेटिन के माध्यम से कर्मचारियों को संस्था, संगठन या विभाग की नीतियों, कार्यों, योजनाओं, नियमों तथा भविष्य की रणनीतियों से अवगत कराया जाता है। 
(3) प्रिंट मीडिया : लोगों को सूचनाओं एवं विचारों से अवगत कराने का लिखित माध्यम है- प्रिंट मीडिया। इसके अंतर्गत् समाचार-पत्र व पत्रिकाएं आती है, जो वाह्य लिखित संचार का प्रभावी माध्यम है। इनमें घटनाओं एवं विचारों की विस्तृत जानकारी प्रकाशित होती है। समाचार पत्रों का दैनिक व साप्ताहिक तथा पत्रिका का साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, अद्र्धवार्षिक एवं वार्षिक प्रकाशन होता है। 
(4) नियम पुस्तिका : उच्चस्तरीय प्रशासक सरकार एवं संगठन की नीतियों के अनुरूप नियम बनाते तथा पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराते हैं, जिससे अधीनस्थ कर्मचारियों को पता चलता हैं कि उन्हें क्या करना है... किस बात पर विशेष ध्यान देना है? नियम पुस्तिका वाह्य एवं आंतरिक लिखित संचार का महत्वपूर्ण माध्यम है।    
(5) कार्यालय आदेश : यह लिखित संचार का परम्परागत् माध्यम है, जिसको संस्था, संगठन या विभाग के प्रमुख द्वारा अधीनस्थों के स्थानांतरण, पदोन्नति, वेतनवृद्धि तथा अन्य आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए निकाला जाता है। प्रारंभ में कार्यालय आदेश हस्तलिखित होते थे। तकनीकी विकास के साथ-साथ टाइपराइटर और कम्प्यूटर का प्रयोग भी कार्यालय आदेश तैयार करने में किया जाने लगा है।   
(6) पत्र : प्राय: लिखित संदेश को पत्र कहते हैं। यह कई प्रकार के होते है, जैसे- शिकायती पत्र, स्मरण पत्र, सुझाव पत्र इत्यादि। सभी सरकारी, गैर-सरकारी कार्यालयों में एक निश्चित स्थान पर शिकायत एवं सुझाव पत्र पेटिका रखी होती है। इसका उपयोग कोई भी व्यक्ति कर सकता है। पत्र लिखित संचार का माध्यम है।
(7) फार्म : यह एक निश्चित प्रारूप में होता है, जिसका उपयोग विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। फार्म के माध्यम से नियत स्थान पर नाम, पिता का नाम, घर का पता, जन्मतिथि, टेलीफोन नम्बर समेत विभिन्न जानकारी लिखने के लिए जगह रिक्त रहता है।   
(8) पुस्तकें : यहभी लिखित संचार का प्रमुख माध्यम है। साहित्यकार, चिंतक, विचारक, दार्शनिक पुस्तकों के माध्यम से अपने विचारों को दूसरों तक पहुंचाने का कार्य करते हंै। इससे जनता में जागृति आती है। 

लिखित संचार की विशेषताएं 
(1) मौखिक संचार की तुलना में अधिक विश्वसनीय,  
(2) भविष्य में साक्ष्य और संदर्भ के रूप में प्रस्तुतिकरण संभव, 
(3) संचारक और प्रापक की एक साथ मौजूदगी जरूरी नहीं, 
(4) कम लागत में स्पष्ट और विस्तृत जानकारी,
(5) संदेश की शत-प्रतिशत गोपनीयता, 
(6) ज्ञान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरण, और 
(7) कमजोर स्मृति के लोगों के लिए लाभकारी होता है। 

   अशाब्दिक संचार
(Non-Verbal Communication

संचार केवल शाब्दिक ही नहीं बल्कि अशाब्दिक भी होता है। जैसे, आवाज का उतार-चढ़ाव, शारीरिक मुद्रा, मुखाभिव्यक्ति इत्यादि। ऐसे संकेतों को अशाब्दिक संचार कहते है। अशाब्दिक संचार के अंतर्गत् विचारों व भावनाओं को बगैर शब्दों के अभिव्यक्त किया जा सकता है। कई स्थानों पर जब विचारों व भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं होता है। तब अशाब्दिक संचार ही सबसे प्रभावी माध्यम होता है। अन्य शब्दों में, शब्द रहित संचार अशाब्दिक संचार है जिसके अंतर्गत् अपने अनुभवों एवं व्यवहारजन्य संकेतों के आधार पर संचारक अपनी बात को प्रापक तक पहुंचाता है। अशाब्दिक भाषा के अंतर्गत् गुप्त संदेश छुपा होता है। 

अशाब्दिक संचार के माध्यम : संचार विशेषज्ञ मेहराबियन ने सन् 1972 में अपने अध्ययन के दौरान पाया कि मानव ५५ प्रतिशत संचार अशाब्दिक, 38 उच्चारण से तथा शेष 7 प्रतिशत शब्दों में करता है। अशाब्दिक संचार के प्रमुख माध्यम निम्नप्रकार हैं :- 
(1) शारीरिक मुद्रा : यह अशाब्दिक संचार का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है। संचार प्रक्रिया के दौरान हाथ हिलाने, हाथों से संकेत करने, मुंह हिलाने, इधर-उधर चलने से पता चलता है कि संचारक कैसा महसूस कर रहा है? इसी प्रकार, चेहरा और आंखों के हावभाव से सुख-दु:ख, विश्वास-अविश्वास इत्यादि का संचार होता है, जिसकी व्याख्या प्रापक आसानी से कर लेता है।
(2) वेशभूषा : वेशभूषा भी अशाब्दिक संचार का माध्यम है। इससे सामने वाले की मन:स्थिति का पता चलता है। वेशभूषा से खुशी या गम की जानकारी मिलती है। कपड़ों के अलावा भी कुछ अन्य सामग्री (जैसे- आभूषण, सेंट, घड़ी, टोपी, जूते, चश्मा, मोबाइल इत्यादि) महत्वपूर्ण है। इनसे भी कुछ न कुछ संचार अवश्य होता हंै। हालांकि इससे क्या संदेश निकलेगा, यह अलग-अलग व्यक्ति के व्यवहार, विचार, पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। जैसे- नौजवानों का हेयर स्टाइल और कपड़ों की पसंद अलग-अलग होती है। इनमें कोई गंभीर प्रवृत्ति का होता है तो कोई बिंदास।  
(3) स्पर्श : यह भी अमौखिक संचार का महत्वपूर्ण माध्यम है। इसके उदाहरण समाज में अक्सर देखने को मिलते हैं। उदाहरणार्थ, भीड़ में आपने किसी को स्पर्श किया और वह आपको आगे जाने के लिए जगह दे देता है। आप चले भी जाते हैं, लेकिन आपने शब्दों में बोलकर जगह नहीं मांगी होती है। आपके स्पर्श करने से सामने वाला समझ जाता है कि आपको आगे जाना है। यह अमौखिक संचार है। इसी प्रकार स्नेहवश किसी के गाल को थपथपाना, दु:ख की घड़ी में किसी के सिर या कंधे पर हाथ रखना व बांह पकडऩा, दोस्तों से हाथ मिलाना इत्यादि अमौखिक संचार है। 
(4) निकटता : दूसरे व्यक्ति से हमारा सम्बन्ध कैसा है। यह निकटता के सिद्धांत से पता चलता है। उदाहरणार्थ, एक मीटर की दूरी पर आत्मीय, तीन मीटर की दूरी व्यक्तिगत् और इससे ज्यादा दूरी पर सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं, जो मौखिक संचार के अंतर्गत् आते हंै।
(5) सम्पर्क : यदि दो लोग गर्मजोशी के साथ आपस में हाथ मिलाते हैं। इसके बाद गले मिलते हैं, तो इससे पता चलता है कि दोनों एक दूसरे से पूर्व परिचित हैं तथा दोनों के बीच अच्छे रिश्ते हैं। इसके विपरीत यदि दो लोग औपचारिक रूप से हाथ मिलाते हैं, तो इसका अर्थ है कि दोनों एक दूसरे को या तो अच्छी तरह से जानते नहीं हैं। यदि जानते हैं तो दोनों के बीच रिश्ते अच्छे नहीं हैं। 
(6) व्यक्तित्व : मानव का कद, रंग, बातचीत करने का तौर-तरीका, चलने की स्टाइल इत्यादि से काफी हद तक उसके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी मिलती है। इस प्रकार का व्यक्तित्व अशाब्दिक संचार का माध्यम है।
(7) आंखों की गति : एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कितने देर तक आंखे मिलाकर वार्ताालॉप करता है। यह दोनों व्यक्तियों के रिश्तों के बारे में अमौखिक रूप से पता चलता है। 

अशाब्दिक संचार की विशेषताएं 
(1) संचारक और प्रापक भाषाई दृष्टि से एक दूसरे से अपरिचित होते हंै, तब भी प्रभावी होता है। 
(2) संदेश सम्प्रेषण में समय और शक्ति दोनों की बचत होती है। 
(3) इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। 
(4) अशाब्दिक संचार से मौखिक संचार प्रभावी बनता है।

(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

संचार के प्रकार (Types of Communication)


       संचार मानव जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक है, जिसके न होने की स्थिति में मानव अधूरा होता है। अपने समाज में मानव कहीं संचारक के रूप में संदेश सम्प्रेषित करता है, तो कहीं प्रापक के रूप में संदेश ग्रहण करता है। संचार प्रक्रिया में संचारक शब्दिक संकेतों के रूप में उद्दीपकों को सम्प्रेषित कर प्रापक के व्यवहार को बदलने का प्रयास करता है। संचार केवल शाब्दिक नहीं होता है, बल्कि इसमें उन सभी क्रियाएं भी सम्मलित किया गया है, जिनसे प्रापक प्रभावित होता है। संचार प्रक्रिया में संदेश का प्रवाह संचारक से प्रापक तक होता है। इस प्रक्रिया में शामिल लोगों की संख्या के आधार पर संचार के प्रकारों का वर्गीकरण किया जाता है, क्योंकि मानव एक-दो लोगों से एक किस्म का तथा किसी समूह/समूदाय के साथ अन्य किस्म का व्यवहार करता है। संचार प्रक्रिया में शामिल लोगों की संख्या के आधार पर संचार मुख्यत: चार प्रकार का होता है :- 
1. अंत: वैयक्तिक संचार,
2. अंतर वैयक्तिक संचार,
3. समूह संचार, और
4. जनसंचार।

1. अंत: वैयक्तिक संचार
(Intrapersonal Communication)

        यह एक मनोवैज्ञानिक क्रिया तथा मानव का व्यक्तिगत चिंतन-मनन है। इसमें संचारक और प्रापक दोनों की भूमिका एक ही व्यक्ति को निभानी पड़ती है। अंत: वैयक्तिक संचार मानव की भावना, स्मरण, चिंतन या उलझन के रूप में हो सकती है। कुछ विद्वान स्वप्न को भी अंत: वैयक्तिक संचार मानते हैं। इसके अंतर्गत् मानव अपनी केंद्रीय स्नायु-तंत्र (Central Nervous Systemतथा बाह्य स्नायु-तंत्र (Perpheral Nervous System) का प्रयोग करता है। केंद्रीय स्नायु-तंत्र में मस्तिष्क आता है, जबकि बाह्य स्नायु-तंत्र में शरीर के अन्य अंग। इस पर मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान में पर्याप्त अध्ययन हुए हंै। जिस व्यक्ति का अंत: वैयक्तिक संचार केंद्रित नहीं होता है, उसे समाज में च्पागलज् कहा जाता है। मनुष्य के मस्तिष्क का उसके अन्य अंगों से सीधा सम्बन्ध होता है। मस्तिष्क अन्य अंगों से न केवल संदेश ग्रहण करता है, बल्कि संदेश सम्प्रेषित भी करता है। जैसे, पांव में चोट लगने का संदेश मस्तिष्क ग्रहण करता है और मरहम लगाने का संदेश हाथ को सम्प्रेषित करता है। 
यह एक स्व-चालित संचार प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से मानव अपना तथा अन्य दूसरों का मूल्यांकन करता है। सामाजिक विज्ञान के अध्ययन की जितनी भी प्रणालियां हैं, उन सभी का आधार अंत: वैयक्तिक संचार ही है। इसे आभ्यांतर, स्वगत या अंतरा वैयक्तिक संचार भी कहा जाता है। यह समस्त संचारों का आधार है। इसकी प्रक्रिया व्यापक होने के साथ-साथ बड़ी रहस्यवादी होती हैं। भारतीय मनीषियों ने अंत: वैयक्तिक संचार प्रक्रिया को सुधारने तथा विकास की राह पर ले जाने का लगातार प्रयास किया है, परिणामस्वरूप योग व साधना की उत्पत्ति व विकास हुआ। समाज में अंत: वैयक्तिक संचार के कई उदाहरण मौजूद हैं-
(1) शारीरिक रूप में मजबूत व्यक्ति अपनी भौतिक शक्ति के कारण सदैव दूसरों पर प्रभुत्व जमाने के लिए स्वयं से संचार करता है। 
(2) निर्धन व्यक्ति सदैव अपनी भूख मिटाने के लिए स्वयं से संचार करता है।  
(3) विद्यार्थी सदैव अच्छे अंक पाने के लिए स्वयं से संचार करता है।
(4) बेरोजगार व्यक्ति नौकरी पाने के लिए संचार करता है... इत्यादि।

इसी क्रम में मैथिली शरण गुप्त की रचना काफी प्रासंगिक हैै :- 
कोई पास न रहने पर भी जनमन मौन नहीं रहता।
आप-आप से ही कहता है, आप-आप की ही सुनता है।। 
अंत: वैयक्तिक संचार एक शरीरतांत्रिक क्रिया है, जिसके चलते मानव में मूल्य, अभिवृत्ति, विश्वास, अपनापन इत्यादि का जन्म होता है। व्यावहारिक प्रक्रिया के आधार पर इसको भौतिक-अभौतिक अथवा अंत:-वाह्य रूपों में विभाजित किया जा सकता है। 

विशेषताएं : अंत: वैयक्तिक संचार की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-  
1. इससे मानव स्वयं को संचालित करता है तथा अपने जीवन की योजनाओं को तैयार करता है।
2. मानव सुख-द:ुख का एहसास करता है। 
3. अपने जीवन के लिए उपयोगी तथा आवश्यक आयामों का आविष्कार करता है, 
4. दिल और दिमाग पर नियंत्रण रखता है, और
5. फीडबैक व्यक्त करता है। 
2. अंतर वैयक्तिक संचार
(Interpersonal Communication)
      अंतर वैयक्तिक संचार से तात्पर्य दो व्यक्तियों के बीच विचारों, भावनाओं और जानकारियों के आदान-प्रदान से है। यह आमने-सामने होता है। इसके लिए दो व्यक्तियों के बीच सम्पर्क का होना जरूरी है। अत: अंतर वैयक्तिक संचार दो-तरफा (Two-way प्रक्रिया है। यह कहीं भी स्वर, संकेत, शब्द, ध्वनि, संगीत, चित्र, नाटक इत्यादि के रूप में हो सकता है। इसमें फीडबैक तुुरंत और सबसे बेहतर मिलता है। संचारक जैसे ही किसी विषय पर अपनी बात कहना शुरू करता है, वैसे ही फीडबैक मिलने लगता है। अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण मासूम बच्चा है, जो बाल्यावस्था से जैसे-जैसे बाहर निकलता है, वैसे-वैसे समाज के सम्पर्क में आता है और अंतर वैयक्तिक संचार को अपनाने लगता है। माता-पिता के बुलाने पर उसका हंसना, बोलना या भागना अंतर वैयक्तिक संचार का प्रारंभिक उदाहरण है। इसके बाद वह ज्यों-ज्यों किशोरावस्था की ओर बढ़ता है, त्यों-त्यों भाषा, परम्परा, अभिवादन आदि अंतर वैयक्तिक संचार प्रक्रिया से सीखने लगता है। पास-पड़ोस के लोगों से जुडऩे में भी अंतर वैयक्तिक संचार की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं।

       अंतर वैयक्तिक संचार में फीडबैक का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी के आधार पर संचार प्रक्रिया आगे बढ़ती है। साक्षात्कार, कार्यालयी वार्तालॉप, समाचार संकलन इत्यादि अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण है। अंतर वैयक्तिक संचार सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। इसके लिए मात्र दो लोगों का मौजूद होना जरूरी नहीं है, बल्कि दोनों के बीच परस्पर अंत:क्रिया का होना भी जरूरी है। वह चाहे जिस रूप में हो। टेलीफोन पर वार्तालॉप, ई-मेल या सोशल नेटवर्किग साइट्स पर चैटिंग अंतर वैयक्तिक संचार के अंतर्गत् आते हैं। सामान्यत: दो व्यक्तियों के बीच वार्तालॉप को ही अंतर वैयक्तिक संचार की श्रेणी में रखा जाता है, परंतु कुछ संचार वैज्ञानिक तीन से पांच व्यक्तियों के बीच होने वाले वार्तालॉप को भी इसी श्रेणी में मानते हैं, बशर्ते संख्या के कारण अंतर वैयक्तिक संचार के मौलिक गुण प्रभावित न हो। संचार वैज्ञानिकों का मानना है कि जैसे-जैसे लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी, वैसे-वैसे अंतर वैयक्तिकता का गुण कम होगा और समूह का निर्माण होगा।

विशेषताएं : अंतर वैयक्तिक संचार बेहद आंतरिक संचार है, जिसके कारण  
(1) फीडबैक तुरंत तथा बेहतर मिलता है।
(2) बाधा आने की संभावना कम रहती है।
(3) संचारक और प्रापक के मध्य सीधा सम्पर्क और सम्बन्ध स्थापित होता है।
(4) संचारक के पास प्रापक को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त अवसर होता है।
(5) संचारक और प्रापक शारीरिक व भावनात्मक दृष्टि से एक-दूसरे के करीब होते हैं।
(6) किसी बात पर असहमति की स्थिति में प्रापक को हस्तक्षेप करने का मौका मिलता है।
(7) प्रापक के बारे में संचारक पहले से बहुत कुछ जानता है।
(8) संदेश भेजने के अनेक तरीके होते हैं। जैसे- भाषा, शब्द, चेहरे की प्रतिक्रिया, भावभंगिमा, हाथ पटकना, आगे-पीछे हटना, सिर झटकना इत्यादि।
3. समूह संचार
(Group Communication)
       यह अंतर वैयक्तिक संचार का विस्तार है, जिसमें सम्बन्धों की जटिलता होती है। समूह संचार की प्रक्रिया को समझने के लिए समूह के बारे में जानना आवश्यक है। समूह संचार को जानने के लिए समूह से परिचित होना अनिवार्य है। मानव अपने जीवन काल में किसी-न-किसी समूह का सदस्य अवश्य होता है। अपनी आवश्यकतओं की पूर्ति के लिए नये समूहों का निर्माण भी करता है। समूहों से पृथक होकर मानव अलग-थलग पड़ जाता है। समूह में जहां व्यक्तित्व का विकास होता है, वहीं सामाजिक प्रतिष्ठा बनती है। समूह के माध्यम से एक पीढ़ी के विचार दूसरे पीढ़ी तक स्थानांतरित होता है। समूह को समाज शास्त्रियों और संचार शास्त्रियों ने अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :-  

  • मैकाइवर एवं पेज के अनुसार- समूह से तात्पर्य व्यक्तियों के किसी ऐसे संग्रह से है जो एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
  • ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार- जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ मिलते हैं और एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं तो वे एक समूह का निर्माण करते हैं।
      अत: जब कुछ लोग एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक-दूसरे से पारस्परिक सम्पर्क बनाते हैं तथा एक दूसरे के अस्तित्व को पहचानते हैं तो उसे एक समूह कहते हैं। इस प्रकार से निर्मित समूह की सबसे प्रमुख विशेषता यह होती है कि सभी लोग स्वयं को समूह का सदस्य मानते हैं। समाजशास्त्री चाल्र्स एच. कूले के अनुसार- समाज में दो प्रकार के समूह होते हैं। पहला, प्राथमिक समूह (Primary Group)-  जिसके सदस्यों के बीच आत्मीयता, निकटता एवं टिकाऊ सम्बन्ध होते हैं। परिवार, मित्र मंडली व सामाजिक संस्था आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं। दूसरा, द्वितीयक समूह (Secondary Group)- जिसका निर्माण संयोग व परिस्थितिवश या स्थान विशेष के कारण कुछ समय के लिए होता है। ट्रेन व बस के यात्री, क्रिकेट मैच के दर्शक, जो आपस में विचार-विमर्श करते हंै, द्वितीयक समूह के सदस्य कहलाते हैं।

       सामाजिक कार्य व्यवहार के अनुसार समूह को हित समूह और दबाव समूह में बांटा गया है। जब कोई समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करता है, तो उसे हित समूह कहा जाता है। इसके विपरीत जब अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य समूहों या प्रशासन के ऊपर दबाव डालता है, तब वह स्वत: ही दबाव समूह में परिवर्तित हो जाता है। व्यक्ति समूह बनाकर विचार-विमर्श, संगोष्ठी, भाषण, सभा के माध्यम से विचारों, जानकारियों व अनुभवाओं का आदान-प्रदान करता है, तो उसे समूह संचार कहा जाता है। इसमें फीडबैक तुरंत मिलता है, लेकिन अंतर वैयक्तिक संचार की तरह नहीं। फिर भी, यह बहुत ही प्रभावी संचार है, क्योंकि इसमें व्यक्तित्व खुलकर सामने आता है। समूह के सदस्यों को अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। समूह संचार कई सामाजिक परिवेशों में पाया जाता है। जैसे- कक्षा, रंगमंच, कमेटी हॉल, बैठक इत्यादि। कई संचार विशेषज्ञों ने समूह संचार में सदस्यों की संख्या २० तक मानते हंै, जबकि कई संख्यात्मक की बजाय गुणात्मक विभाजन पर जोर देते हैं। लिण्डग्रेन (१९६९) के अनुसार, दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक दूसरे के साथ कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर एक समूह का निर्माण होता है।
       
         समूह संचार और अंतर वैयक्तिक संचार के कई गुण आपस में मिलते हैं। समूह संचार कितना बेहतर होगा, फीडबैक कितना अधिक मिलेगा, यह समूह के प्रधान और उसके सदस्यों के परस्पर सम्बन्धों पर निर्भर करता है। समूह का प्रधान संचार कौशल में जितना अधिक निपुण तथा ज्ञानवान होगा। उसके समूह के सदस्यों के बीच आपसी सम्बन्ध व सामन्जस्य जितना अधिक होगा, संचार भी उतना ही अधिक बेहतर होगा। छोटे समूहों में अंतर वैयक्तिक संचार के गुण ज्यादा मिलने की संभावना होती है। बड़े समह की अपेक्षा छोटे समूह में संचार अधिक प्रभावशाली होता है, क्योंकि छोटे समूह के अधिकांश सदस्य एक-दूसरे से पूर्व परिचित होते हैं। सभी आपस में बगैर किसी मध्यस्थ के विचार-विमर्श करते हैं। सदस्यों को अपनी बात कहने का मौका भी अधिक मिलता है। समूह के सदस्यों के हित और उद्देश्य में काफी समानता होती है तथा सभी संदेश ग्रहण करने के लिए एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। प्रापक पर संदेश का सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होता है, जिसे फीडबैक के रूप में संचारक ग्रहण करता है। 

विशेषताएं : समूह संचार में :- 
१. प्रापकों की संख्या निश्चित होती है, सभी अपनी इच्छा व सामर्थ के अनुसार सहयोग करते हैं,
२. सदस्यों के बीच समान रूप से विचारों, भावनाओं का आदान-प्रदान होता है,
३. संचारक और प्रापक के बीच निकटता होती है,
४. विचार-विमर्श के माध्यम से समस्याओं का समाधान किया जाता है,  
५. संचारक का उद्देश्य सदस्यों के बीच चेतना विकसित कर दायित्व बोध कराना होता है, 
६. फीडबैक समय-समय पर सदस्यों से प्राप्त होता रहता है, और
७. समस्या के मूल उद्देश्यों के अनुरूप संदेश सम्प्रेषित किया जाता है।

4. जनसंचार
(Mass Communication)
       आधुनिक युग में जनसंचार  काफी प्रचलित शब्द है। इसका निर्माण दो शब्दों जन+संचार के योग से हुआ है। च्जनज् का अर्थ नता अर्थात् भीड़ होता है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, जन का अर्थ पूर्ण रूप से व्यक्तिवादिता का अंत है। गिन्सवर्ग के अनुसार, जनता असंगठित और अनाकार व्यक्तियों का समूह है जिसके सदस्य सामान्य इच्छाओं एवं मतों के आधार पर एक दूसरे से बंधे रहते हैं, परंतु इसकी संख्या इतनी बड़ी होती है कि वे एक-दूसरे के साथ प्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये नहीं रख सकते हैं। समूह संचार का वृहद रूप है- जनसंचार। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग १९वीं सदी के तीसरे दशक के अंतिम दौर में संदेश सम्प्रेषण के लिए किया गया। संचार क्रांति के क्षेत्र में तरक्की के कारण जैसे-जैसे समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि का प्रयोग बढ़ता गया, वैसे-वैसे जनसंचार के क्षेत्र का विस्तार होता गया। इसमें फीडबैक देर से तथा बेहद कमजोर मिला है। आमतौर पर जनसंचार और जनमाध्यम को एक ही समझा जाता है, किन्तु दोनों अलग-अलग हैं। जनसंचार एक प्रक्रिया है, जबकि जनमाध्यम इसका साधन। जनसंचार माध्यमों के विकास के शुरूआती दौर में जनमाध्यम मनुष्य को सूचना अवश्य देते थे, परंतु उसमें जनता की सहभागिता नहीं होती थी। इस समस्या को संचार विशेषज्ञ जल्दी समझ गये और समाधान के लिए लगातार प्रयासरत रहे। इंटरनेट के आविष्कार के बाद लोगों की सूचना के प्रति भागीदारी बढ़ी है तथा मनचाहा सूचना प्राप्त करना और दूसरों को सम्प्रेषित करना संभव हो सका।   

       जनसंचार को अंग्रेजी भाषा में Mass Communication कहते हैं, जिसका अभिप्राय बिखरी हुई जनता तक संचार माध्यमों की मदद से सूचना को पहुंचाना है। समाचार पत्र, टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि अत्याधुनिक संचार माध्यम हैं। जनसंचार का अर्थ विशाल जनसमूह के साथ संचार करने से है। दूसरे शब्दों में, जनसंचार वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बहुल रूप में प्रस्तुत किए गए संदेशों को जन माध्यमों के जरिए एक-दूसरे से अंजान तथा विषम जातीय जनसमूह तक सम्प्रेषित किया जाता है। संचार विशेषज्ञों ने जनसंचार की निम्नलिखित परिभाषा दी है :-

  • लेक्सीकॉन यूनिवर्सल इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार- कोई भी संचार, जो लोगों के महत्वपूर्ण रूप से व्यापक समूह तक पहुंचता हो, जनसंचार है। 
  • बार्कर के अनुसार- जनसंचार श्रोताओं के लिए अपेक्षाकृत कम खर्च में पुनर्उत्पादन तथा वितरण के विभिन्न साधनों का इस्तेमाल करके किसी संदेश को व्यापक लोगों तक, दूर-दूर तक फैले हुए श्रोताओं तक रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र जैसे किसी चैनल द्वारा पहुंचाया जाता है। 
  • कार्नर के अनुसार- जनसंचार संदेश के बड़े पैमाने पर उत्पादन तथा वृहद स्तर पर विषमवर्गीय जनसमूहों में द्रुतगामी वितरण करने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में जिन उपकरणों अथवा तकनीक का उपयोग किया जाता है उन्हें जनसंचार माध्यम कहते हैं। 
  • कुप्पूस्वामी के अनुसार- जनसंचार तकनीकी आधार पर विशाल अथवा व्यापक रूप से लोगों तक सूचना के संग्रह एवं प्रेषण पर आधारित प्रक्रिया है। आधुनिक समाज में जनसंचार का कार्य सूचना प्रेषण, विश्लेषण, ज्ञान एवं मूल्यों का प्रसार तथा मनोरंजन करना है। 
  • जोसेफ डिविटों के अनुसार- जनसंचार बहुत से व्यक्तियों में एक मशीन के माध्यम से सूचनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को रूपांतरित करने की प्रक्रिया है।
  • जॉर्ज ए.मिलर के अनुसार- जनसंचार का अर्थ सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाना है।
  • डी.एस. मेहता के अनुसार- जनसंचार का अर्थ जनसंचार माध्यमों जैसे- रेडियो, टेलीविजन, प्रेस और चलचित्र द्वारा सूचना, विचार और मनोरंजन का प्रचार-प्रसार करना है। 
  • रिवर्स पिटरसन और जॉनसन के अनुसार-
          - जनसंचार एक-तरफा होता है।
          - इसमें संदेश का प्रसार अधिक होता है। 
          - सामाजिक परिवेश जनसंचार को प्रभावित करता है तथा जनसंचार का असर सामाजिक परिवेश पर
            पड़ता है।
          - इसमें दो-तरफा चयन की प्रक्रिया होती है।
          - जनसंचार जनता के अधिकांश हिस्सों तक पहुंचने के लिए उपर्युक्त समय का चयन करता है। 
          - जनसंचार जन अर्थात् लोगों तक संदेशों का प्रवाह सुनिश्चित करता है।

  • डेनिस मैकवेल के अनुसार- 
        - जनसंचार के लिए औपचारिक तथा व्यस्थित संगठन जरूरी है, क्योंकि संदेश को किसी माध्यम द्वारा      
          विशाल जनसमूह तक पहुंचाना होता है।
        - जनसंचार विशाल, अपरिचित जनसमह के लिए किया जाता है।
        - जनसंचार माध्यम सार्वजनिक होते हैं। इसमें भाषा व वर्ग के लिए कोई भेद नहीं होता है। 
        - श्रोताओं की रचना विजातीय होती है तथा वे विभिन्न संस्कृति, वर्ग, भाषा से सम्बन्धित होते हैं।
        - जनसंचार द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों में एक ही समय पर सम्पर्क संभव है।
        - इसमें संदेश का यांत्रिक रूप में बहुल संख्या में प्रस्तुतिकरण या सम्प्रेषण होता है। 

           उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जनसंचार यंत्र संचालित है, जिसमें संदेश को तीब्र गति से भेजने की क्षमता होती है। जनसंचार माध्यमों में टेलीविजन, रेडियो, समाचार-पत्र, पत्रिका, फिल्म, वीडियो, सीडी, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि आते हैं, जो संदेश को प्रसारित एवं प्रकाशित करते हंै। जनमाध्यमों के संदर्भ में मार्शल मैक्लूहान ने लिखा है कि- च्माध्यम ही संदेश हैट्ट। माध्यम का अर्थ मध्यस्थता करने वाला या दो बिन्दुओं को जोडऩे से है। व्यावहारिक दृष्टि से संचार माध्यम एक ऐसा सेतु है जो संचारक और प्रापक के मध्य ट्यूब, वायर, प्रवाह इत्यादि से पहुंचता है।

विशेषताएं : जनसंचार की विशेषताएं काफी हद तक संदेश सम्प्रेषण के लिए प्रयोग किये गये माध्यम पर निर्भर करती हंै। जनसंचार माध्यमों की अपनी-अपनी विशेषताएं होती हैं। प्रिंट माध्यम के संदेश को जहां संदर्भ के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है, भविष्य में पढ़ा जा सकता है, दूसरों को ज्यों का त्यों दिखाया व पढ़ाया जा सकता है, वहीं इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के संदेश को न तो सुरक्षित रखा जा सकता है, न तो भविष्य में ज्यों का त्यों देखा तथा दूसरों को दिखाया जा सकता है। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक  माध्यम के संदेश को अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी ग्रहण कर सकता है, लेकिन प्रिंट माध्यम के संदेश को ग्रहण करने के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की मदद से संदेश को एक साथ हजारों किलोमीटर दूर फैले प्रापकों के पास एक ही समय में पहुंचाया जा सकता है, किन्तु प्रिंट माध्यम से नहीं। वेब द्रुतगति का जनसंचार माध्यम है। इसकी तीव्र गति के कारण देश की सीमाएं टूट चुकी हैं। इसी आधार पर मार्शल मैकलुहान ने च्विश्वग्रामज् की कल्पना की। इंटरनेट आधारित वेब माध्यम की मदद से सम्प्रेषित संदेश को प्रिंट माध्यम की तरह पढ़ा, इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की तरह देखा व सुना जा सकता है। कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर Ctrl S (कीज) की मदद से भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। जनसंचार की निम्नलिखित विशेषताएं निम्नलिखित हैं :- 
1. विशाल भू-भाग में रहने वाले प्रापकों से एक साथ सम्पर्क स्थापित होता है,
2. समस्त प्रापकों के लिए संदेश समान रूप से खुला होता है,
3. संचार माध्यम की मदद से संदेश का सम्प्रेषण किया जाता है,
4. सम्प्रेषण के लिए औपचारिक व व्यवस्थित संगठन होता है,
5. संदेश सम्प्रेषण के लिए सार्वजनिक संचार माध्यम का उपयोग किया जाता है, 
6. प्रापकों के विजातीय होने के बावजूद एक ही समय में सम्पर्क स्थापित करना संभव होता है,
7. संदेश का यांत्रिक रूप से बहुल संख्या में प्रस्तुतिकरण या सम्प्रेषण होता है, तथा
8. फीडबैक संचारक के पास विलम्ब से या कई बार नहीं भी पहुंचता है।


    

रविवार

संचार प्रक्रिया (Communication Process)


आदिकाल में आज की तरह संचार माध्यम नहीं थे, तब भी मानव संचार करता था। वर्तमान युग में संचार माध्यमों की विविधता के कारण संचार प्रक्रिया में तेजी आयी है, लेकिन उसके सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन संचार माध्यमों और आधुनिक संचार माध्यमों में संचार प्रक्रिया का सैद्धांतिक स्वरूप एक जैसा ही है। सामान्यत: संचार पांच प्रक्रियाओं में सम्पन्न होता है, जो निम्नवत् है :- 

पहली प्रक्रिया : संचार की पहली प्रक्रिया में मुख्यत: तीन तत्व भाग लेते हैं- संचारक, संदेश और प्रापक। इसके अंतर्गत् संचार एक-मार्गीय होता है। संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश सीधे प्रापक तक पहुंचता है। 
  

उपरोक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि संचार की पहली प्रक्रिया में संचारक और प्रापक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। संचार को तभी प्रभावी या सार्थक कहा जा सकता है, जब संचारक और प्रापक, मानसिक व भावनात्मक दृष्टि से  एक ही धरातल पर हो तथा संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश के अर्थो को प्रापक समझता हो।

दूसरी प्रक्रिया : संचार की दूसरी प्रक्रिया के अंतर्गत् संचारक और प्रापक को क्रमश: एक-दूसरे की भूमिका निभानी पड़ती है। इसके परिणाम स्वरूप दोनों के मध्य एक पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित होता है। 




 

     उपरोक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि संचार प्रक्रिया द्वि-मार्गीय होने के कारण निरंतर चलती रहती है। इसके अंतर्गत् संचारक से संदेश ग्रहण करने के उपरांत प्रापक जैसे ही कुछ कहना शुरू करता है, वैसे ही संचारक की भूमिका में आ जाता है। उसकी बातों को सुनते समय संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक जैसी हो जाती है। 

तीसरी प्रक्रिया : संचार की तीसरी प्रक्रिया के अंतर्गत् संचारक निर्णय लेता है कि उसे कब, क्या, किसे और किस माध्यम (Channel) से सम्प्रेषित करना है। अर्थात् संचारक संदेश सम्प्रेषित करने के लिए संचार माध्यम का चुनाव करता है। 



 
उपरोक्त रेखाचित्र के माध्यम से स्पष्ट है कि संचारक अपने संदेश और प्रापक की स्थिति के अनुसार संचार माध्यम का चुनाव करता है। संचारक अपने संदेश को बोलकर, लिखकर, रेखाचित्र बनाकर या शारीरिक क्रिया द्वारा सम्प्रेषित कर सकता है। प्रापक सुनकर, पढक़र, देखकर या छूकर संदेश को ग्रहण कर सकता है।

चौथी प्रक्रिया : संचार की चौथी प्रक्रिया के अंतर्गत् प्रापक किसी माध्यम से प्राप्त संचारक के संदेश को ग्रहण करने के उपरान्त अपने ज्ञान के स्तर के आधार पर व्याख्या करता है। तदोपरान्त बोलकर, लिखकर या अपनी भाव-भंगिमाओं से प्रतिक्रिया (Feedback) व्यक्त करता है।

उपरोक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि संचार प्रक्रिया के दौरान प्रापक से फीडबैक प्राप्त करते हुए एक कुशल संचारक अपनी बात को आगे बढ़ाता है तथा संदेश में आवश्यकतानुसार बदलाव भी करता है। फीडबैक न मिलने की स्थिति में संचारक का उद्देश्य अधूरा रह जाता है।

पांचवी प्रक्रिया : संचार प्रक्रिया में संचारक अपने संदेश को गुप्त भाषा में कूट (Encode) करता है और किसी माध्यम से सम्प्रेषित करता है। प्रापक संदेश को प्राप्त करने के बाद गुप्त भाषा को समझ (Decode) लेता है तथा अपना फीडबैक व्यक्त कर देता है, तो संचार प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इस प्रक्रिया में कई तरह की बाधाएं आती है, जिससे संदेश कमजोर, विकृत और अप्रभावी हो जाता है। 

 


उपरोक्त रेखाचित्र में संचारक (Encoder) वह व्यक्ति है जो संचार प्रक्रिया को प्रारंभ करता है। संदेश शाब्दिक और अशाब्दिक दोनों तरह का हो सकता है। किसी माध्यम से संदेश प्रापक तक पहुंचता है। प्रापक संदेश को प्राप्त करने के बाद व्याख्या (Decode) करता है, फिर प्रतिक्रिया  (Feecback) व्यक्त करता है। तब प्रापक ष्ठद्गष्शस्रद्गह्म् कहलाता है। इस प्रक्रिया में कुछ बाधा  (Noise) उत्पन्न होती है, जिससे संचार का प्रवाह/प्रभाव कम हो जाता है। 


(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

संचारक के तत्व (Elements of Communication)



संचार एक सतत् प्रक्रिया है जिसमें निम्न छ: तत्व एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए आपस में क्रिया-प्रतिक्रिया करते  हैं ।  

(i)  संचारक¤ (Communicator) Ñ संचार प्रक्रिया में संचारक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह प्रापक की समस्याओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप संदेश का निर्माण करता है। संचारक संदेश का स्रोत व निर्माता होता है। दूसरे शब्दों में, संचारक वह व्यक्ति होता है जो संचार प्रक्रिया की शुरूआत करता है। इसे कम्युनिकेटर, सेंडर, स्रोत, सम्प्रेषक, एनकोडर, संवादक इत्यादि नामों से जाना जाता है। सम्प्रेषित संदेश का प्रापक पर क्या और कितना प्रभाव होगा, यह संचारक के सम्प्रेषण कला और ज्ञान के स्तर पर निर्भर करता है। 
(iiसंदेश (Message) Ñ संचार प्रक्रिया में विचारों व अनुभवों का सम्प्रेषण होता है। विचार व अनुभव को ही संदेश कहते  हैं। दूसरे शब्दों में- प्रापक से संचारक जो कुछ कहना चाहता है वह संदेश है। संदेश लिखित, मौखिक, प्रतीकात्मक तथा शारीरिक हाव-भाव के रूप में होता है। संदेश को अंतर्वस्तु (Contents) भी कहा जाता है। प्राय: संदेश का निर्माण अंत:वैयक्तिक संचार के रूप में होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं है वह उसी रूप में प्रापक तक पहुंचे। एक संदेश अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग प्रापकों तक अलग-अलग रूपों में पहुंचता है। संदेश का निर्माण करते समय संचारक को संदेश की विषय वस्तु, संदेश की विवेचना, संदेश माध्यम, प्रापक के ज्ञान का स्तर इत्यादि को ध्यान में रखना चाहिये। इनमें से किसी एक का गलत चयन होने पर प्रभावी संचार संभव नहीं है। 

(iiiमाध्यम (Channel) Ñ संचार प्रक्रिया मे माध्यम सेतु की तरह होता है, जो संचार और प्रापक को जोडऩे का कार्य करता है। संदेश किस तरह के श्रोताओं तक, किस गति से तथा कितने समय में पहुंचाना है, यह माध्यम पर निर्भर करता है। समाचार पत्र, टेलीविजन चैनल, रेडियो, वेब पोर्टल्स, ई-मेल, फैक्स, टेलीप्रिंटर, मोबाइल इत्यादि संचार के अत्याधुनिक माध्यम हैं। सम्प्रेषित संदेश की सफलता उसके माध्यम पर निर्भर करती है। उदाहरणार्थ, समाचार पत्र व ई-मेल से भेजा गया संदेश केवल साक्षर लोगों के बीच, जबकि रेडियो व टेलीविजन से सम्प्रेषित संदेश साक्षर व निरक्षर दोनों के बीच प्रभावी होता है। इसका तात्पर्य है कि माध्यम और संदेश के बीच सामंजस्य पर संचार की प्रभावशीलता निर्भर करती है। 

(ivप्रापक (Receiver) Ñ प्रापक उस व्यक्ति को कहते है,  जिसको ध्यान में रखकर संचारक अपने संदेश का निर्माण, उचित माध्यम का चुनाव और सम्प्रेषण करता है। प्रापक कोई एक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह हो सकता है। प्रापक को संग्राहक, ग्रहणकर्ता, प्राप्तकर्ता, रिसीवर, डिकोडर इत्यादि नामों से जाना जाता है। संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश को प्रापक पढक़र, सुनकर, देखकर, चख कर व स्पर्श कर ग्रहण करता है। देखने या सुनने या पढऩे या सोचने की क्षमता के अभाव में प्रापक संदेश के अर्थो को शत-प्रतिशत ग्र्रहण नहीं सकता है।  

(vफीडबैक (Feedback) Ñ संचारक से संदेश ग्रहण करने के उपरांत प्रापक उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, जिसे प्रति-उत्तर, प्रतिपुष्टि व फीडबैक कहा जाता है। बेहतर संचार के लिए बेहतर फीडबैक का होना आवश्यक है। फीडबैक से ही पता चलता है कि संचारक के संदेश को प्रापक ने ग्रहण किया है या नहीं। अनुभवी संचारक सम्प्रेषण के दौरान ही प्रापक से फीडबैक लेना शुरू कर देता है, क्योंकि वह जैसे ही बोलना शुरू करता है, वैसे ही प्रापक अपने चेहरे व हाव-भाव से प्रतिक्रिया व्यक्त करना शुरू कर देता है। फीडबैक से संचारक को पता चलता है कि संदेश सम्प्रेषण में गलती हो रही है या नहीं। फीडबैक सकारात्मक या नकारात्मक तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकता है। 

(v) शोर (Noise) Ñ संचार प्रक्रिया में शोर एक प्रकार का अवरोध है, जो सम्प्रेषित संदेश के प्रभाव को कम करता है। शोर को बाधा भी कहा जाता है। संचारक जिस रूप में संदेश को भेजता है, उसी रूप में प्रापक तक शत-प्रतिशत पहुंच जाये तो माना जाता है कि संचार प्रक्रिया में कोई अवरोध नहीं है। लेकिन ऐसा कम ही होता है। सभी सम्प्रेषित संदेश के साथ कोई न कोई शोर अवश्य जुड़ जाता है, जो संचारक द्वारा भेजा गया नहीं होता है। उदाहरणार्थ, रेडियो या टेलीविजन पर आवाज के साथ सरसराहट का आना। मोबाइल पर वार्तालाप के दौरान आसपास की ध्वनियों का जुड़ जाना इत्यादि। 

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फीडबैक (Feedback)

संचार प्रक्रिया में फीडबैक उस प्रतिक्रिया को कहते हैं, जिसे प्रापक अभिव्यक्त तथा संचारक ग्रहण करता है। सामान्यत: संचार प्रक्रिया प्रारंभ...