शनिवार

ऑसगुड-श्राम का संचार प्रारूप (Osgood-Schramm’s Modal of Communication)


        चाल्र्स ई.ऑसगुड मनोभाषा विज्ञानी थे, जिन्होंने सन् 1954 में अपना संचार प्रारूप विकसित किया, जो पूर्व के प्रारूपों से बिलकुल भिन्न है। ऑसगुड के अनुसार- संचार की प्रक्रिया गत्यात्मक व परिवर्तनशील होती है, जिसमें भाग लेने वाले प्रत्येक प्रतिभागी (संचारक व प्रापक) संदेश सम्प्रेषण व ग्रहण करने के साथ-साथ कूट रचना या संकेतीकरण (Encoding), कूट वाचन या संकेत ग्राहक (Decoding) तथा संदेश की व्याख्या का कार्य भी करते हैं। अत: दोनों को व्याख्याकार (Interpretor) की भूमिका निभानी पड़ती है। ऑसगुड का मानना है कि संचार की गत्यात्मक व परिवर्तनशील प्रक्रिया के कारण एक समय ऐसा आता है, जब संदेश सम्प्रेषित करने वाले संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक की तथा कुछ देर बाद पुन: संचारक की हो जाती है। इसी प्रकार, सूचना ग्रहण करने वाले प्रापक की भूमिका भी क्रमश: बदलकर संचारक तथा कुछ देर बाद पुन: प्रापक की हो जाती है। संचारक व प्रापक की भूमिका के परिवर्तन में संदेश की व्याख्या का महत्वपूर्ण स्थान होता है। 

        इसे विलबर श्राम ने प्रारूप का रूप दिया, जिसे सर्कुलर प्रारूप कहते है। ऑसगुड-श्राम के सर्कुलर प्रारूप को निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है :- 


        उपरोक्त संचार प्रारूप के संदर्भ में ऑसगुड-श्राम का मानना है कि संदेश सम्प्रेषित करना और ग्रहण करना स्वाभाविक रूप से भले ही दो अलग-अलग कार्य हो, लेकिन मानव दोनों कार्यों को एक ही समय में करता है। अत: संचार की दृष्टि से दोनों एक ही कार्य है। इस प्रारूप में संदेश संप्रेषित करने वाले- संचारक और संदेश ग्रहण करने वाले- प्रापक को व्याख्याकार (Interpretor) कहा गया है। व्याख्याकार पहले संकेतों के रूप में संदेश की रचना करता है, फिर उसे सम्प्रेषित करता है। तब वह कूट लेखक व संकेत प्रेषक (Encoder) की भूमिका में होता है। उसे ग्रहण करने वाला कूट वाचक व संकेत ग्राह्यता (Decoder) होता है, क्योंकि वह संदेश के अर्थ को समझने के लिए व्याख्याकार (Interpretor) की भूमिका को निभाता है। इसके बाद कूट वाचक या संकेत ग्राह्यता अपनी प्रतिक्रिया की कूट/संकेत में भेजते समय कूट प्रेषक (Encoder) बन जाता है, जबकि उसे प्राप्त करने वाला कूट वाचक (Decoder  होता है। इस तरह, दोनों (संचारक व प्रापक) व्याख्याकार होते हैं। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है, जिसके कारण ऑसगुड-श्राम के प्रारूप को सर्कुलर प्रारूप कहा जाता है।


(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

लॉसवेल फार्मूला (Lasswell’s Formula)

         हेराल्ड डी. लॉसवेल अमेरिका के प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री हैं, लेकिन इनकी दिलचस्पी संचार शोध के क्षेत्र में थी। इन्होंने ने सन् 1948 में संचार का एक शाब्दिक फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसे दुनिया का पहला व्यवस्थित प्रारूप कहा जाता है। यह फार्मूला प्रश्न के रूप में था। लॉसवेल के अनुसार-  संचार की किसी प्रक्रिया को समझने के लिए सबसे बेहतर तरीका निम्न पांच प्रश्नों के उत्तर को तलाश करना। यथा- 
  1.  कौन (who)
  2. क्या कहा (says what)
  3. किस माध्यम से (in which channel),
  4. किससे (To whom) और
  5. किस प्रभाव से (with what effect)।
        इसे निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है :- 

                       
         इन पांच प्रश्नों के उत्तर से जहां संचार प्रक्रिया को आसानी से समझे में सहुलित मिलती है, वहीं संचार शोध के पांच क्षेत्र भी विकसित होते हैं, जो निम्नांकित हैं :-
1. Who                                       Communicator Analysis संचारकर्ता विश्लेषण
2. Saya what                              Massige Analysia               अंतर्वस्तु विश्लेषण
3. In Which channel                    Mediam Analysis              माध्यम विश्लेषण
4. To whom                               Audience Analysis               श्रोता विश्लेषण
5.with what effect                      Impact Analysis                प्रभाव विश्लेषण

         हेराल्ड डी. लॉसवेल ने शीत युद्ध के दौरान अमेरिका में प्रचार की प्रकृति, तरीका और प्रचारकों की भूमिका विषय पर अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने पाया कि आम जनता के विचारों, व्यवहारों व क्रिया-कलापों को परिवर्तित या प्रभावित करने में संचार माध्यम की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसी आधार पर लॉसवेल ने अरस्तु के संचार प्रारूप के दोषों को दूर कर अपना शाब्दिक संचार फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसमें अवसर के स्थान पर संचार माध्यम का उल्लेेख किया। लॉसवेल ने अपने संचार प्रारूप का निर्माण बहुवादी समाज को केंद्र में रखकर किया, जहां भारी संख्या में संचार माध्यम और विविध प्रकार के श्रोता मौजूद थे। हेराल्ड डी. लॉसवेल ने अपने संचार प्रारूप में फीडबैक को प्रभाव के रूप में बताया है तथा संचार प्रक्रिया के सभी तत्त्वों को सम्मलित किया है।

        लॉसवेल फार्मूले की सीमाएं : स्कूल ऑफ सोशियोलॉजी, शिकागो के सदस्य रह चुके हेराल्ड डी.लॉसवेल का फार्मूले को संचार प्रक्रिया के अध्ययन की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय लोकप्रियता मिली है। इसके बावजूद संचार विशेषज्ञों इसे निम्नलिखित सीमा तक ही प्रभावी बताया है :-
  1. लॉसवेल का फार्मूला एक रेखीय संचार प्रक्रिया पर आधारित है, जिसके कारण सीधी रेखा में कार्य करता है। 
  2. इसमें फीडबैक को स्पष्ट रूप से दर्शाया नहीं गया है। 
  3. संचार की परिस्थिति का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है।
  4. संचार को जिन पांच भागों में विभाजित किया गया है, वे सभी आपस में अंत:सम्बन्धित हंै।
  5. संचार के दौरान उत्पन्न होने वाले व्यवधान को नजर अंदाज किया गया है। 
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(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

संचार का SMCR प्रारूप (SMCR Modal of Communication)


           डेविड के. बरलो ने सन् 1960 में अपना संचार प्रारूप प्रस्तुत किया, जो आचार संहिता विज्ञान पर आधारित है। बरलो का SMCR प्रारूप निम्न लिखित है :-
 

       बरलो के प्रारूप में  S-M-C-R का अर्थ है :-

                 S          :           Source (प्रेषक)
                M         :           Message (संदेश)
                C          :           Channel (माध्यम)
                R          :           Receiver (प्रापक)

  1. प्रेषक (Source) : स्रोत एक व्यक्ति होता है। इसके प्रभाव को जानने के लिए व्यक्ति के गुणों को जानना जरूरी है। इसका विश्लेषण प्रेषक के संचार कौशल, व्यवहार, ज्ञान, समाज व्यवस्था व संस्कृति के आधार पर किया जा सकता है।
  2. संदेश (Message) : संदेश किसी भी भाषा या चित्र के माध्यम से दिया जा सकता है। प्रेषक संदेश की संरचना अपने तरीके से करता है। जैसे- भाषाई दृष्टि से हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी इत्यादि तथा चित्रात्मक दृष्टि से फिल्म, फोटोग्राफ इत्यादि के रूप में। संदेश संरचना के बाद प्रेषक उसे अपने तरीके से सम्प्रेषित करता है, जिसका विश्लेेषण तत्व, अंतर्वस्तु, ढांचा, उपचार व कूट इत्यादि के स्तर पर किया जा सकता है।
  3. माध्यम ( Channel) : माध्यम की मदद से संदेश प्रापक तक पहुंचता है। संचार के दौरान प्रेषक द्वारा कई प्रकार के माध्यमों का उपयोग किया जा सकता है। प्रापक देखकर, सुनकर, स्पर्श कर, सुंघ कर तथा चखकर संदेश को ग्रहण कर सकता है।
  4. प्रापक (Receiver ) : संदेश को ग्रहण करने में प्रापक का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यदि प्रापक की सोच सकारात्मक होती है तो संदेश अर्थपूर्ण होता है। इसके विपरीत, प्रेषक के प्रति नकारात्मक सोच होने की स्थिति में संदेश भी अस्पष्ट होता है।

          बर्लोज के संचार प्रारूप में संचार प्रक्रिया का उल्लेख नहीं है। यदि इसका विश्लेषण करें तो यह मुख्य रूप से संचार प्रक्रिया में मानवीय तत्व की भूमिका अथवा प्रक्रिया से जुड़ा है। यह भूमिका प्रेषक, संदेश, संचार माध्यम एवं प्रापक इत्यादि के रूप में जुड़ी हो सकती है। अत: बर्लोज का स्रूष्टक्र प्रारूप पूर्णता युक्त नहीं है।
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(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 7018381096 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

संचार प्रारूप (Communication Modal)


        पृथ्वी पर मानव सभ्यता के साथ जैसे-जैसे संचार प्रक्रिया का विकास होता गया, वैसे-वैसे संचार के प्रारूपों का भी। अत: संचार का अध्ययन प्रारूपों के अध्ययन के बगैर अधूरा माना जाता है। समाजिक विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों जैसे- समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान, संचार शास्त्र, प्रबंध विज्ञान इत्यादि के अध्ययन, अध्यापन व अनुसंधान में प्रारूपों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। समाज वैज्ञानिकों व संचार विशेषज्ञों ने अपने-अपने समय के अनुसार संचार के विभिन्न प्रारूपों का प्रतिपादन किया है। सामान्य अर्थों में हिन्दी भाषा के च्प्रारूपज् शब्द से अभिप्राय रेखांकन से लिया जाता है, जिसे  अंग्रेजी भाषा रूशस्रड्डद्य में कहते हैं। 
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार- च्प्रारूप से अभिप्राय किसी वस्तु को उसके लघु रूप में प्रस्तुत करना है।ज् प्रारूप वास्तविक संरचना न होकर उसकी संक्षिप्त आकृति होती है। जैसे- पूरी दुनिया को बताने के लिए छोटा सा च्ङ्गलोबज्। किसी सामाजिक घटना अथवा इकाई के व्यवहारिक स्वरूप को बताने के लिए अनुभव के सिद्धांत के आधार पर तैयार की गई सैद्धांतिक परिकल्पना को प्रारूप कहते हैं। दूसरे शब्दों में- प्रारूप किसी घटना अथवा इकाई का वर्णन मात्र नहीं होता है, बल्कि उसकी विशेषताओं को भी प्रदर्शित करता है। प्रारूप के माध्यम से व्यक्त की जाने वाली जानकारी या सूचना, वास्तविक जानकारी या सूचना के काफी करीब होता है। इस प्रकार, प्रारूप देखने में भले ही काफी छोटा होता है, लेकिन अपने अंदर वास्तविकता की व्यापकता को समेटे होता है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने प्रारूप को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :-
  • प्रारूप प्रतीकों एवं क्रियान्वित नियमों की एक ऐसी संरचना है, जो किसी प्रक्रिया के अस्तित्व से सम्बन्धित बिन्दुओं के समानीकरण के लिए संकल्पित की जाती है।
  • प्रारूप संचार यथा- घटना, वस्तु, व्यवहार का सैद्धान्तिक तथा सरलीकृत प्रस्तुतिकरण है।
  • किसी घटना, वस्तु अथवा व्यवहारात्मक प्रक्रिया की चित्रात्मक, रेखात्मक या वाचिक अभिव्यक्ति का प्रारूप है।
  • प्रारूप एक ऐसी विशेष प्रक्रिया या प्रविधि है, जिसे किसी अज्ञात सम्बन्ध अथवा वस्तुस्थिति की व्याख्या के लिए संदर्भ बिन्दु के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
        संचार एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है। परिवर्तनशीलता के अनुपात में संचार प्रक्रिया की जटिलता घटती-बढ़ती रहती है। संचार प्रारूप सिद्धांतों पर आधारित संचरना होती है, जिसमें व्यक्ति व समाज पर पडऩे वाले प्रभावों की अवधारणाओं को भी सम्मलित किया जाता है। अत: संचार प्रारूप की संरचना संचार प्रक्रिया की समझ व परिभाषा पर निर्भर करती है। संचार शास्त्री डेविटो के शब्दों में- संचार प्रारूप संचार की प्रक्रियाओं व विभिन्न तत्वों को संगठित करने में सहायक होती है। ये प्रारूप संचार के नये-नये तथ्यों की खोज में भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अनुभवजन्य व अन्वेषणात्मक कार्यों द्वारा ये प्रारूप भावी अनुसंधान के लिए संचार से सम्बन्धित प्रश्नों का निर्माण करते हैं। इन प्रारूपों की मदद से संचार से सम्बन्धित पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। संचार की विभिन्न प्रक्रियाओं व तत्वों का मापन किया जा सकता है।  
एक तरफा संचार प्रारूप
(One-way Communication Modal)

संचार का यह प्रारूप तीर की तरह होता है, जिसके अंतर्गत संचारक अपने सदेश को सीधे प्रापक के पास प्रत्यक्ष रूप से सम्प्रेषण करता है। इसका तात्पर्य यह है कि एक तरफ संचार प्रारूप के अंतगर्त केवल संचारक अपने विचार, जानकारी, अनुभव इत्यादि को सूचना के रूप में सम्प्रेषित करता है। उपरोक्त सूचना के संदर्भ में प्रापक अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है अथवा प्रतिक्रिया करता है तो संचारक उससे अंजान रहता है। एक तरफा संचार प्रक्रिया की परिकल्पना सर्वप्रथम हिटलर और रूजवेल्ट जैसे तानाशाह शासकों ने की, लेकिन इसका प्रतिपादन २०वीं शताब्दी के तीसरे दशक के दौरान अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों ने किया। अमेरिकी प्रतिरक्षा विभाग ने कार्ल होवलैण्ड की अध्यक्षता में अस्त्र परिचय कार्यक्रम का मूल्यांकन करने के लिए गठित मनोवैज्ञानिकों की एक विशेष कमेटी ने अपने अध्ययन के द्वारा पाया कि संचारक द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सम्प्रेषित संदेश का प्रापकों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। इस अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट 1949 में प्रकाशित हुई। इसको अद्यो्रलिखित रेखाचित्र द्वारा समझा जा सकता है :- 
  
          इस प्रारूप से स्पष्ट है कि सूचना का प्रवाह संचारक से प्रापक तक एक तरफा होता है, जिसमें संचार माध्यम मदद करते हैं। रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र इत्यादि की मदद से सूचना का सम्प्रेषण एक तरफा संचार का उदाहरण है। इस प्रारूप का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें सूचना के प्रवाह को मात्र संचार माध्यमों की मदद से दर्शाया गया है, जबकि समाज में सूचना का प्रवाह बगैर संचार माध्यमों के प्रत्यक्ष भी होता है। 

दो तरफा संचार प्रारूप
(Two- way Communication Modal)

        संचार के इस प्रारूप में संचारक और प्रापक की भूूमिका समान होती है। दोनों अपने-अपने तरीके से संदेश सम्प्रेषण का कार्य करते हैं। प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने बैठकर संदेश सम्प्रेषण के दौरान रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र जैसे संचार माध्यमों की जरूरत नहीं पड़ती है। दो तरफा संचार प्रारूप में संचारक और प्रापक को समान रूप से अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। संचारक और प्रापक के आमने-सामने न होने की स्थिति में दो तरफा संचार के लिए टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल, एसएमएस, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, चैटिंग, अंतर्देशीय व पोस्टकार्ड जैसे संचार माध्यम की जरूरत पड़ती है। इसमें टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल व एसएमएस, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स व चैटिंग अत्याधुनिक संचार माध्यम है, जिनका उपयोग करने से संचारक और प्रापक के समय की बचत होती है, जबकि अंतर्देशीय व पोस्टकार्ड परम्परागत संचार माध्यम है, जिसमें संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश को प्रापक तक पहुंचने में पर्याप्त समय लगता है। समाज में दो तरफा संचार माध्यम के बगैर भी होता है। पति-पत्नी, गुरू-शिष्य, मालिक-नौकर इत्यादि के बीच वार्तालॉप की प्रक्रिया दो तरफा संचार का उदाहरण है।

       उपरोक्त प्रारूप से स्पष्ट है कि सूचना का प्रवाह संचारक से प्रापक की ओर होता है। समय, काल व परिस्थिति के अनुसार संचारक और प्रापक की भूमिका बदलती रहती है। संचारक से संदेश ग्रहण करने के उपरान्त प्रापक जैसे ही अपनी बात को कहना शुरू करता है, वैसे ही वह संचारक की भूमिका का निर्वाह करने लगता है। इसी प्रकार उसकी बात को सुनते समय संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक की हो जाती है। 

समाजीकरण में संचार की भूमिका (Role of Communication in Socialization)


        मानव की सामाजिक व सांस्कृतिक परम्पराओं के स्थानांतरण की प्रक्रिया को सामाजीकरण कहते हैं। यह स्थानांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक होता है, जिसमें संचार की भूमिका महत्वपूर्ण होती हैं। सामाजिक निरंतरता को बनाए तथा बचाए रखने के लिए संचार के विविध विधाओं का होना अनिवार्य है। इसकी अनिवार्यता का अनुमान बड़े ही आसानी से लगाया जा सकता है, क्योंकि समाजीकरण की प्रत्येक क्रिया संचार पर ही निर्भर हैं। उदाहरणार्थ, मानव संचार की मदद से जैसे-जैसे सांस्कृतिक अभिवृत्तियों, मूल्यों और व्यवहारों को आत्मसात करता जाता है, वैसे-वैसे जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी बनता जाता है। इस प्रकार, संचार तथा सामाजिक जीवन के बीच काफी गहरा सम्बन्ध परिलक्षित होता है। सामाजिक सम्बन्धों के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना जरूरी है। पानी-गिलास, कलम-दवात, पंखा-बिजली के बीच सम्बन्ध होता है, लेकिन उसे सामाजिक सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि इनके बीच मानसिक जागरूकता का अभाव होता है। अत: मानसिक जागरूकता के अभाव में सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण संभव नहीं है। वर्तमान समाज में संचार ने एक महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका को अधिग्रहित कर लिया है। विशेषज्ञों का दावा है कि संचार के विविध माध्यमों की तीन महत्वपूर्ण सामाजिक प्रक्रियाएं हैं- समाजीकरण, सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक नियंत्रण। संचार समाजीकरण का प्रमुख माध्यम हैं। 

        आज से करीब पांच लाख साल पूर्व कन्दराओं में रहने वाले (आदि) मानव ने अपनी ध्वनि तथा वाक्शक्ति के आधार पर मौखिक संचार की जिस सतत् सकारात्मक परम्परा की शुरूआत की, वह वर्तमान में भी जारी हैं। सभ्यता के प्रारंभ में मानव के पास केवल आवाज थी, तब परिवार (प्राथमिक समूह) द्वारा मौखिक संचार के रूप में समाजीकरण का कार्य किया जाता था। इस संदर्भ में समाजशास्त्री जेल्डिच ने अध्ययन किया, जिसका विषय था- ट्टसमाजीकरण में माता-पिता की भूमिकाट्ट । अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि सभी समाजों में पिता- साधक नेतृत्व (Instrumental Leadership) तथा माता- भावनात्मक नेतृत्व (Expressive Leadership) प्रदान करते हैं। सभ्यता के विकास के साथ-साथ समाजीकरण के अभिकरणों का भी विकास हुआ। परिणामत: परिवार के साथ-साथ क्रीड़ा समूह, पास-पड़ोस, नातेदार तथा विवाह जैसी संस्थाएं भी समाजीकरण का कार्य करने लगी।

         कालांतर में लिपि का आविष्कार होने से शिक्षण संस्थाए (Educational Institutions) भी समाजीकरण के अभिकरण (साधन) बन गये। हालांकि इससे प्राथमिक समूह की भूमिका में किसी प्रकार की कमी तो नहीं आयी, लेकिन लोगों को सार्वजनिक रूप से समाजीकरण के क्षेत्र में शिक्षण संस्थाओं की भागीदारी को स्वीाकर करना पड़ा। तब शिक्षण संस्थाओं में हस्तलिखित पोथियों का उपयोग किया जाता था। तत्कालीक मानव के लिए सीमित संख्या वाली ये पोथियां अद्भूत वस्तुएं थी, जिनके आदर में लोगों का शीश सदैव झुका रहता था। इन पोथियों को लिखित संचार का प्रारंभिक माध्यम कहा जाता है। मुद्रण के आविष्कार व विकास के बाद पोथियां की जगह को पुस्तकों ने अधिग्रहित कर लिया, जिससे लिखित संचार माध्यम को विस्तार मिला। तब समाज में प्राथमिक समूह के साथ-साथ शिक्षण संस्थानों व पुस्तकों के माध्यम से भी समाजीकरण होने लगा। तत्कालीन समाज में मुद्रण तकनीकी आश्चर्यजनक संचार माध्यम के रूप में उभरा। इसके बाद समाज का जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे संचार के माध्यमों का भी। परिणामत: समाचार पत्र, पत्रिकाएं, रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टेलीफोन, मोबाइल इत्यादि संचारमाध्यम समाजीकरण के कार्य में जुटे है। समाज में संचार माध्यमों की बहुलता के कारण लोगों के पास एक ही संदेश कई माध्यमों से आने लगे हैं, जिससे संदेशों के पुष्टिकरण की समस्या का भी काफी हद तक समाधान हो गया है। भारतीय समाजशास्त्री श्यामा चरण दूबे के अनुसार- मानव जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी तब बनता है, जब वह संचार के माध्यम से सांस्कृतिक अभिवृत्तियों, मूूल्यों और व्यवहारजन्य प्रतिमानों को आत्मसात कर लेता है। इनका दावा है कि सांस्कृतिक निरंतरता को संचार माध्यमों पर आधारित सामाजिक प्रक्रिया है। व्यक्ति, समाज व मूल्यों के बीच परस्पर आदान-प्रदान से सम्बन्ध स्थापित होता है, जिससे सांस्कृतिक निरंतरता को गति मिलती है। इस प्रक्रिया में संचार माध्यम महत्वपूूर्ण भूमिका निभाते है।

मानव में बुद्धि, तर्क, भाषा, अभिव्यक्ति, संस्कृति इत्यादि के रूप में कई नैसर्गिक गुणों का समावेश होता है। जिनकी मदद से वह भौतिक माध्यमों द्वारा सम्प्रेषित संदेशों का मूल्यांकन करता है। संचार की विभिन्न विधाएं समाजीकरण के साथ-साथ सामाजिक निरंतरता को बनाये रखने का कार्य करती हैं। सामाजिक विचारक विलियम्स के अनुसार- नई सूचना प्रौद्योगिकी के कारण एक नई भौतिक संस्कृति विकसित हुई है। साथ ही सामाजिक आविष्कारों के रूप में संचार माध्यमों का सामाजीकरण व सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान है। भौतिक आविष्कारों ने मानव जीवन को प्रभावित किया है। इसका उदाहरण है- मताधिकार का प्रयोग, स्त्री शिक्षा का प्रसार, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति, अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों का उन्मूलन, जिसे प्रतिस्थापित करने में संचार माध्यमों की सबसे अहम भूमिका रही हैं। उपरोक्त सामाजिक बुराईयों के समूलनाश के लिए सबसे पहले संचार माध्यमों ने ही जन-जागरण अभियान प्रारंभ किया। इससे नये सामाजिक मूल्यों की प्रतिस्थापना हुई, जो सामाजिक परिवर्तन और समाजीकरण के कारण बनें।  

निष्कर्ष
       सामाजीकरण का मूल आधार संचार ही है। मानव-शिशु संसार में पशु की आवश्यकताओं से युक्त एक जैविकीय प्राणी के रूप में जन्म लेता है तथा समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सामाजिक प्राणी बनता है। इस प्रक्रिया के बिना न तो समाज जीवित रह सकता है, न तो संस्कृति बच सकती है और न तो सामाजिक मनुष्य का निर्माण हो सकता है। समाजीकरण की प्रक्रिया में संचार माध्यमों की भूूमिका महत्वपूर्ण होती है। आधुनिक संचार माध्यमों के विकास के साथ-साथ समाजीकरण की प्रक्रिया में भी बदलती रहती है। इन परिवर्तनों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि संचार माध्यमों के सामाजिक दायित्वों की जहां बढ़ोत्तरी हुई है, वहीं आधुनिक समाज भी संचार माध्यमों पर ही पूरी तरह से आश्रित हो गया है। प्रारंभ में जब संचार माध्यमों का विकास नहीं हुआ था, तब समाजीकरण का एक माध्यम साधन मौखिक संचार था, जिसमें परिवार नामक प्राथमिक समूह के सदस्य भाग लेते थे। यह प्रक्रिया काफी सीमित थी। मुद्रण तकनीकी के विकास से लोगों को पुस्तकों की सुविधा मिली, जिसके कारण ज्ञान के क्षेत्र विस्तृत हुआ। समाचार पत्र, पत्रिका रेडियो, टेलीविजन, मोबाइल, इंटरनेट इत्यादि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के आगमन से सीखने की प्रक्रिया में ढेरों सूचना संदेश उपलब्ध हो सके। 

समाजीकरण (Socialization)


बालक में जन्म के समय किसी भी मानव समाज का सदस्य बनने की योङ्गयता नहीं होती हैं। वह एक जैविकीयप्राणी के रूप में संसार में आता है तथा रक्त, मांस व हड्डियों का एक जीवित पुतला होता है। उसमें अंदर किसी प्रकार के सामाजिक गुणों का समावेश नहीं होता है। वह न तो सामाजिक होता है... न तो असामाजिक... और न तो समाज विरोधी...। समाज के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, मूल्यों एवं संस्कृतियों से भी अनजान होता है। वह नहीं जानता है कि उसे किसके प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए तथा समाज के लोग उससे कैसी अपेक्षा रखता है। बालक कुछ शारीरिक क्षमताओं के साथ पैदा होता है। इन क्षमताओं के कारण ही बहुत कुछ सीख लेता है तथा समाज का क्रियाशील सदस्य बन जाता है। सामाजिक सम्पर्क के कारण सीखने की क्षमता व्यावहारिक रूप धारण करती है। उदाहरणार्थ, मानव में भाषा का प्रयोग करने की क्षमता होती है, जो समाज के सम्पर्क में आने से ही व्यावहारिक रूप ग्रहण करती है। सामाजिक सम्पर्क के कारण ही मानव समाज के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, मूल्यों, विश्वासों, संस्कृतियों एवं सामाजिक गुणों को सीखता है और एक सामाजिक प्राणी होने का दर्जा प्राप्त करता है। सामाजिक सीख की इस प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहते हैं। 

समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Socialization)
समाजीकरण वह प्रविधि है, जिसके द्वारा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जाता है। इसके माध्यम से मानव अपने समूह एवं समाज के मूल्यों, रीति-रिवाजों, लोकाचारों, आदर्शो एवं सामाजिक उद्देश्यों को सीखता है। दूसरे शब्दों में समाजीकरण एक प्रक्रिया है,  जिसके द्वारा मानव को सामाजिक -सांस्कृतिक संसार से परिचित कराया जाता है। इस संदर्भ में समाजीकरण की कुछ प्रचलित परिभाषाएं निम्रलिखित हैं :- 

  • ए. डब्ल्यू. ग्रीन के अनुसार- समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन और व्यक्तिव को प्राप्त करता है।
  • गिलिन और गिलिन के अनुसार- समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति, समूह में एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्यविधियों में समन्वय स्थापित करता है, उसकी परम्पराओं को ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करके अपने साथियों के प्रति सहनशक्ति की भावना विकसित करता है।
  • किम्बाल यंग के अनुसार- समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रवेश करता तथा समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है और जिसके द्वारा उसे समाज के मूल्यों और मानकों को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है। 
  • एच.एम. जॉनसन के अनुसार- समाजीकरण सीखने की वह प्रक्रिया है जो सीखने वाले को सामाजिक भूमिकाओं का निर्वाह करने योङ्गय बनाती है।
  • न्यूमेयर के अनुसार- एक व्यक्ति के सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया का नाम समाजीकरण है।
        उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि- समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव अपने समूह अथवा समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण करके अपने व्यक्तित्व का विकास करता है और समाज का क्रियाशील सदस्य बनता है। समाजीकरण द्वारा बच्चा सामाजिक प्रतिमानों को सीखकर उनके अनुरूप आरण करता है, इससे समाज में नियंत्रण बना रहता है।
स्वीवर्ट एवं ङ्गिलन ने समाजीकरण के तीन तत्वों को आवश्यक बतलाया हैं। पहला- अंत:क्रिया, दूसरा-भावनात्मक स्वीकृति और तीसरा- संचार व भाषा। दूसरे व्यक्तियों के साथ अंत:क्रिया के दौरान मानव सही व्यवहार करना सीखता है। वह यह भी सीखता है कि किस प्रकार के व्यवहारों को समाज द्वारा स्वीकृत प्राप्त है और किस प्रकार के व्यवहार प्रतिबंधित हैं। इस दौरान वह अपने अधिकारों, दायित्वों तथा कर्तव्यों को भी सीखता है। सीखने का कार्य संचार व भाषा द्वारा सरलता से किया जाता है। चूंकि मानव एक भावनात्मक और बौद्धिक प्राणी होता है, अत: वह प्रेम पाने व प्रेम प्रदान करने का अनुभव भी प्राप्त करता है। भावनात्मक वातावरण में समाजीकरण शीघ्र होता है। इस प्रकार समाजीकरण के लिए उक्त तीनों तत्वों की आवश्यकता होती है।

संचार में बाधा (Barriers of Communication)

 संचार प्रक्रिया में बाधा एक प्रकार का अवरोध है, जो संदेश के प्रभाव को कमजोर कर देता है। परिणामत: संदेश को ग्रहण करने व उसके अर्थ को समझने में प्रापक को तथा समझाने में संचारक को परेशानी होती है। इसमें विकृत फीडबैक मिलता है। दूसरे अर्थो में, संचार प्रक्रिया के दौरान संचारक चाहता है कि उसके द्वारा सम्प्रेषित संदेश शत-प्रतिशत प्रापक तक पहुंचे तथा वह उसकी व्याख्या उन्हीं अर्थो में करें, जिसको ध्यान में रखकर संदेश की संरचना व सम्प्रेषण की गयी है। इस प्रक्रिया में कोई न कोई बाधा अवश्य आती है। यह बाधा निम्नलिखित हो सकती है :-
                 (A)  शारीरिक बाधा  (Physical Barriers)
                 (B)   भाषाई बाधा (Language Barriers)
                 (C)  सांस्कृतिक बाधा (Cultural Barriers)
                 (D)  भावनात्मक बाधा (Emotional Barriers)
                 (E)  अवधारणात्मक बाधा (Perceptual Barriers)   

(A) शारीरिक बाधा : इसका तात्पर्य संचारक और प्रापक में शारीरिक अक्षमता से है, जिसके कारण संदेश को सम्प्रेषित करने या ग्रहण करने या अर्थ को समझने में बाधा उत्पन्न होती है। संचार प्रक्रिया में संदेश के प्रभाव को कमजोर करने वाली प्रमुख शारीरिक बाधाएं निम्नलिखित हैं :-
  1. उच्चारण क्षमता का कमजोर होना : मौखिक संचार प्रक्रिया में संचार के उच्चारण क्षमता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। संचारक की उच्चारण क्षमता कमजोर या अस्पष्ट होने की स्थिति में संदेश का सम्प्रेषण वास्तविक रूप में नहीं हो जाता है, जिससे संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है। कई बार उच्चारण क्षमता में निपुर्ण संचारक भी कठीन शब्द का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाता है, जिसके चलते संदेश के वास्तविक अर्थ को समझने में परेशानी होती है। 
  2. श्रवण क्षमता का कमजोर होना : मौखिक संचार प्रक्रिया के तहत सम्प्रेषित संदेश को सुनने के लिए प्रापक में श्रवण क्षमता का होना आवश्यक है। ऐसा न होने की स्थिति में संचारक संदेश सम्प्रेषण के दौरान चाहे जितना भी सरल व स्पष्ट शब्दों का प्रयोग करें या तेज आवाज में बोले, लेकिन प्रापक उसके संदेश को शत-प्रतिशत ग्रहण नहीं कर सकता है, अर्थात... श्रवण क्षमता कमजोर होने के कारण संचार में बाधा उत्पन्न होती है। 
  3. दृश्य क्षमता का कमजोर होना : लिखित संचार में दृश्य क्षमता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। प्रापक में दृश्य क्षमता के कमजोर होने से संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है तथा संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश को प्रापक शत-प्रतिशत ग्रहण नहीं कर पाता है। मोटे-मोटे अक्षरों में लिखें संदेश को पढक़र समझ लेता है, लेकिन छोटे अक्षरों में लिखें संदेश को न तो पढ़ पाता है और न तो समझ पाता है। 

(B) भाषाई बाधा : इसका तात्पर्य उन अवरोधों से है, जिनका सम्बन्ध भाषा से होता है। मरफ  और पैक के अनुसार- शब्दकोष में रन (Run) शब्द के 110 अर्थ है। इनमें 71 क्रिया, 35 संज्ञा तथा 4 विश्लेषण के रूप में हैं। ऐसी स्थिति में संचारक जिस अर्थ में रन शब्द का प्रयोग किया होता है, उस अर्थ को प्रापक समझ लेता है तो संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न नहीं होता है। इसके विपरीत, यदि गलत अर्थ समझता है तो भाषाई बाधा उत्पन्न होता है। भाषाई बाधा निम्नलिखित हैं :- 
  1. भाषा का अल्प ज्ञान होना : समाज में कई प्रकार की भाषाएं प्रचलित है। यह जरूरी नहीं है कि एक व्यक्ति को सभी भाषाओं का ज्ञान हो, अर्थात... भाषाओं का अल्प ज्ञान होने से भी संचार में बाधा उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ, कोई वरिष्ठ अधिकारी मूलत: तमिलनाडू का निवासी होने के कारण हिन्दी या अंग्रेजी के साथ तमिल भाषा बोलने का आदती हो। ऐसे में वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को मौखिक संचार के माध्यम से संदेश देगा तो भाषाओं के अल्प ज्ञान के कारण संचार में बाधा उत्पन्न होगी।
  2. दोषपूर्ण अनुवाद होना : वर्तमान समय में अत्याधुनिक संचार माध्यमों (ई-मेल, ई-फैक्स, ई-प्रिंट इत्यादि) पर विविध भाषाओं में सूचनाओं का प्रवाह हो रहा है, जिसे ग्रहण करने के लिए अल्प भाषी को अनुवाद करना पड़ता है। दोषपूर्ण अनुवाद होने की स्थिति में सूचना का वास्तविक अर्थ परिवर्तित हो जाता है। अत: संदेश का दोषपूर्ण अनुवाद होने से संचार में भाषाई बाधा उत्पन्न होती है।
  3. तकनीकी भाषा का ज्ञान न होना : यह आम लोगों की नहीं बल्कि खास लोगों की भाषा होती है, जिसका उपयोग अक्सर कार्य क्षेत्र में किया जाता हैं। यदि खास लोग अपनी तकनीकी भाषा में संदेश सम्प्रेषित करते हैं तो आम लोगों को समझ में नहीं आता है, जिससे संचार के दौरान बाधा उत्पन्न होती है। 
(C) सांस्कृतिक बाधा: समाज में संस्कृतिक दृष्टि से भाषा, परम्परा व खान-पान में काफी विधिता है। खास तौर से पुरानी और आधुनिक पीढ़ी के बीच, जिसके चलते संचार के दौरान अवरोध का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह अवरोध निम्नलिखित हो सकते हैं:- 
  1. बोलचाल: पुरानी पीढ़ी के लोगों बोलचाल के दौरान परम्परागत शब्द का उपयोग करते हैं, जबकि आधुनिक पीढ़ी के लोगों तकनीकी व नवीन शब्दों को, जिसके कारण एक दूसरे के साथ संचार स्थापित करने में बाधा उत्पन्न होती है तो उसे सांस्कृतिक बाधा कहते हैं। 
  2. परम्परा: पुरानी पीढ़ी और आधुनिक पीढ़ी की सांस्कृतिक परम्परा में काफी अंतर है। पुरानी पीढ़ी के लोग एक-दूसरे से मिलते समय यथाउचित अभिवादन जैसे बड़ो का पैर छूना इत्यादि पसंद करते हैं, जबकि आधुनिक पीढ़ी के लोग हाथ मिलाकर हेलो बोलना तथा गले मिलना पसंद करते हैं, जिसमें बड़े-छोटे का भेद नहीं होता है। इस प्रकार, दोनों पीढिय़ों की सांस्कृतिक परम्पराएं अलग-अलग हैं, जिससे संचार के दौरान बाधा उत्पन्न होती है तो उसे सांस्कृतिक बाधा कहते हैं।
  3. खान-पान: पुरानी पीढ़ी के लोगों को खान-पान में परम्परागत भोजन व पेय पदार्थ- चावल, दाल, रोटी, सब्जी, दूध इत्यादि पसंद होता है, जबकि आधुनिक पीढ़ी को फास्ट फूड और कोल्ड ड्रिंक, जिसके चलते खान-पान की दृष्टि से दोनों पीढिय़ों के बीच संचार में बाधा उत्पन्न होती है तो उसे सांस्कृतिक बाधा कहते हैं।
(D) अवधारणात्मक बाधा: इसका तात्पर्य उन अवरोधों से है, जिसका सम्बन्ध अवधारणा से होता है। इसका निर्माण मानव समय, काल एवं परिस्थिति के अनुसार करता है। अवधारणा में कई प्रकार की कमियां रह जाती है, जिससे संचार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है। इन बाधाओं को अवधारणात्मक बाधा कहते हैं, जो निम्नलिखित हैं:-    
  1. ध्यान न देना: संचार प्रक्रिया के दौरान संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश में प्रापक की अभिरूचि नहीं होती है, जिसके चलते वह मौखिक संचार में शारीरिक रूप से उपस्थित होता है, किन्तु मानसिक रूप से अनुपस्थित। लिखित संचार के दौरान भी सामान्यतरू लम्बी-लम्बी रिपोर्टाे, सरकुलर पत्रों, नोटिसों व बुलेटिनों को प्रापक नजर अंदाज कर देते हैं, जिससे अवधारणात्मक बाधा उत्पन्न होती है।
  2. पूर्वाग्रह का होना: संचारक के प्रति पूर्वाग्रह होने की स्थिति में भी प्रापक उसके संदेश पर ध्यान कम देता है या नहीं देता है। भले से सम्प्रेषित संदेश प्रापक के हित में ही क्यों न हो। इस प्रकार संचारक के प्रति पूर्वाग्रह होने के कारण भी संचार प्रक्रिया में अवधारणात्मक बाधा उत्पन्न होती है।  
  3. समय पूर्व मूल्यांकन: संचार प्रक्रिया में ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं, जब संचारक अपने संदेश के प्रारंभिक अंशों को ही सम्प्रेषित किया होता है, जिसके आधार पर प्रापक बाद के अंशों का मूूल्यांकन करने लगता है, जिससे संदेश का अर्थ गलत निकलने लगता है। इस प्रकार अवधारणात्मक बाधा उत्पन्न होती है।  
(E) भावनात्मक बाधा: इसका तात्पर्य संचारक और प्रापक की भावनात्मक स्थिति से है, जिसके चलते संचार प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होती है तो उसे भावनात्मक बाधा कहते हैं। 

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