शनिवार

व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत (Personal Influence Theory)


इस सिद्धांत का प्रतिपादन कोलंबिया विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री प्रोफेसर पॉल एफ. लेजर्सफेल्ड ने सन 1948 में किया है। बुलेट सिद्धान्त की आलोचना के बाद लेजर्सफेल्ड ने व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत के अंतर्गत दावा किया है कि समाज में जनमाध्यमों की अपेक्षा व्यक्तिगत संचार अधिक प्रभावशाली है, क्योंकि प्रापक जनमाध्यमों को अनदेखा कर सकता है, लेकिन व्यक्तिगत सम्बन्धों को नहीं। प्रो. लेजर्सफेल्ड के अनुसार- प्रभावी संचार के लिए  संचारक और प्रापक का एक-दूसरे के करीब होना बेहद जरूरी है। व्यक्तिगत संचार तभी प्रारंभ होता है, जब संचारक और प्रापक भौगोलिक व भावनात्मक दृष्टि से एक-दूसरे के करीब होते हैं। इस आधार पर जनमाध्यमों की मदद से सम्प्रेषित संदेश को प्रभावी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सम्प्रेषण के दौरान प्रापक संदेश ग्रहण करने के लिए जनमाध्यमों के पास मौजूद हो भी सकता है और नहीं थी। इसी प्रकार, दोनों के बीच भावनात्मक सम्बन्ध हो भी सकता है और नहीं भी। अत: संचारक और प्रापक के आपस में अपरचित होने से जनमाध्यमों द्वारा सम्प्रेषित संदेश अवैयक्तिक होता है। व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत को संचार का द्वि-चरणीय प्रवाह सिद्धांत भी कहते हैं।  

व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत :  प्रोफेसर लेजर्सफेल्ड ने अपने समाजशास्त्री साथी बेरलसन, काटजू, गाइल के साथ मिलकर 1940 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में संचार माध्यमों के प्रभाव का अध्ययन तथा इसी आधार पर 1944 में 'दी पीपुल्स च्वाइस' नामक पुस्तक प्रकाशित किया। अध्ययन के दौरान उनकी टीम ने चार समूहों क्रमश: A, B, C और D के 600 मतदाता का पहला साक्षात्कार मई, 1940 में लिया। इसके बाद समूह-A के मतदाताओं का नवंबर से प्रत्येक माह चुनाव होने तक तथा शेष तीन समूह-B, C और D के मतदाताओं का जुलाई, अगस्त व अक्तूबर माह में साक्षात्कार लिया। इसके परिणाम काफी आश्चर्यजनक निकले, क्योंकि अध्ययन के दौरान पाया गया कि मतदाताओं पर जनमाध्यमों का कम तथा व्यक्तिगत सम्पर्कों (ओपीनियन लीडर) का ज्यादा प्रभाव था। जनमाध्यमों पर प्रसारित संदेश पहले ओपीनियन लीडर तक पहुंचते थे। ओपीनियन लीडर संदेश को अपने निकटस्थ लोगों या समर्थकों तक पहुंचा देते थे। शोध के दौरान यह भी पाया गया कि ओपीनियन लीडर प्रतिदिन रेडियो सुनते और समाचार-पत्र पढ़ते थे तथा समाज के कम सक्रिय किन्तु व्यापक संख्या वाले लोगों तक संदेशों को पहुंचा देते थे। इनके प्रभाव के कारण मई से नवंबर माह के बीच आठ प्रतिशत मतदाताओं ने अपना उम्मीदवार बदला। कई मतदाताओं ने व्यक्तिगत प्रभाव के कारण अपने उम्मीदवार का निर्णय देर से लिया। एक महिला होटल कर्मी ने शोधार्थियों को बताया कि उसने वोट देने का निर्णय एक ऐसे ग्राहक की बातों से प्रभावित होकर लिया, जिसे वह जानती तक नहीं थी। लेकिन उसकी बातें सुनकर ऐसा लग रहा था कि मानों वह जिसके बारे में बात कर रहा है, उसके बारे में सबकुछ जानता है। इसी आधार पर प्रोफेसर लेजर्सफेल्ड ने संचार के व्यक्तिकत प्रभाव (द्वि-चरणीय प्रवाह) सिद्धांत का प्रतिपादन किया। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है  कि ...ओपीनियन लीडर कौन होते हैं? 

ओपीनियन लीडर : समाज का वह प्रभावशाली व्यक्ति है, जिसके पास कोई संवैधानिक शक्ति तो नहीं होती है, किन्तु अपने क्षेत्र या विषय के विशेषज्ञ होने के कारण जनमत को प्रभावित करने की हैसियत रखते है। ऐसे व्यक्ति को ओपीनियन लीडर कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में- ओपीनियन लीडर जनमाध्यम और जनता के बीच एक सेतू की तरह होता है।



 
                                     
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अपने अध्ययन के दौरान प्रोफेसर लेजर्सफेल्ड व उनके साथियों ने ओपीनियन लीडर को चिन्हित करने के लिए मतदाताओं से सवाल पूछा कि- विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय बनाने के लिए किससे सलाह करते हैं? इस सवाल के अधिकांश जवाब में प्रभावशाली व्यक्ति ही थे, जो समाज के अन्य सदस्यों की अपेक्षा अधिक अनुभवी, कर्मठ व चौकन्ना थे तथा समाज के सभी मामलों में दिलचस्पी लेता है। अध्ययन के दौरान पाया गया कि सभी समाज में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति अवश्य होता है, जो ओपीनियन लीडर की भूमिका निभाता है। ओपीनियन लीडर जनमाध्यमों का प्रयोग सामान्य लोगों की अपेक्षा अधिक करते हैं। साथ ही जनमाध्यमों और अपने समाज के सदस्यों के  बीच मध्यस्थता का काम भी करते हैं। अधिकांशत: लोग इन लीडरों से ही संदेश प्राप्त करते है। यहीं व्यक्तिगत प्रभाव के सिद्धांत का आधार भी है। 

विशेषताएं : व्यक्तिगत प्रभाव (द्वि-चरणीय प्रवाह) सिद्धांत में आम जनता पर ओपीनियन लीडर का प्रभाव अत्यधिक होता है, क्योंकि-
(1) जनमाध्यमों पर प्रसारित संदेशों को आम लोगों की अपेक्षा ओपीनियन लीडर अधिक गंभीरता व उत्सुकता से सुनते हैं। 
(2) ओपीनियन लीडर के पास एक से अधिक जनमाध्यम होते हैं, जिन पर प्रसारित संदेशों एवं सूचनाओं की सत्यता को परखने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।   
(3) ओपीनियन लीडर विभिन्न सामाजिक कार्यों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होते हैं, जिसके कारण उसके विचार स्वत: ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं।  
(4) ओपीनियन लीडर अपने समर्थकों के बीच बड़ी सहजता से पहुंच जाते हैं तथा सूचनाओं का प्रचार-प्रसार कर निर्णायक भूमिका निभाते हंै। 
(5) ओपीनियन लीडर आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण अच्छी सामाजिक हैसियत रखते हैं, जिसके चलते लोग उसके संदेशों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। 
(6) ओपीनियन लीडर किसी भी प्रकार के संशय की स्थिति में अपने समर्थकों से विचार-विमर्श करते हैं और उचित परामर्श को स्वीकार करते हैं।   

निष्कर्ष : अपने अध्ययन के दौरान संचार विशेषज्ञों ने निष्कर्ष निकला कि संदेश ग्रहण करने मात्र से ही मानव के व्यवहार व सोच में परिवर्तन नहीं हो जाता है। इसमें काफी समय लगता है। इस प्रक्रिया की रफ्तार काफी धीमी है। जनमाध्यमों द्वारा सम्प्रेषित संदेश का सभी प्रापकों पर एक समान प्रभाव नहीं पड़ता है। इसे ओपिनियन लीडर अपने प्रभाव से स्थापित करता है।

आलोचना : इस सिद्धांत की आलोचना कई संचार विशेषज्ञों ने की है। इनका मानना है कि व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत में जनमाध्यमों की भूमिका को एकदम से नकार दिया गया है तथा ओपीनियन लीडर की भूमिका को काफी बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है, जो उचित नहीं है। डेनियलसन का तर्क है कि जनमाध्यमों की पहुंच समाज में व्यापक लोगों के बीच होती है, जिनके माध्यम से लोग सीधे संदेश ग्रहण करते हैं। इसके लिए किसी मीडिल मैन (ओपीनियन लीडर) की जरूरत नहीं है। 

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(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

बुलेट सिद्धांत (Bullet Theory)

         जब संचारक पूर्व नियोजित तरीके से अपने संदेश को सम्प्रेषित कर प्रापक में मनचाहा प्रभाव उत्पन्न करने का प्रयास करता है, तो इस प्रक्रिया को बुटेल सिद्धांत कहते हैं। इसमें संचारक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है प्रापक की नहीं। संचारक सूचना का स्वरूप, आकार, प्रकार, माध्यम इत्यादि का निर्धारण करता है। जबकि प्रापक एक अक्रियाशील प्राणी होता है तथा सोचने-समझने की क्षमता न होने के कारण संचारक के संदेश को ज्यों का त्यों ग्रहण कर लेता है। 

          संचार के इस सिद्धांत का प्रतिपादन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका में हुआ। उस समय अमेरिकी समाज आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक आधार पर तेजी से बदल रहा था, जिसके चलते लोगों में आपसी तालमेल व सहयोग की भावना कम होने लगी थी। अमेरिकी समाज में जनमाध्यमों का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था। लोग एक-दूसरे पर कम तथा जनमाध्यमों पर अधिक भरोसा करने लगे थे। इस परिवेश में समाजशास्त्री ने महसूस किया कि- जनमाध्यम एक शक्तिशाली हथियार है, क्योंकि इसके संदेश का लोगों पर प्रत्यक्ष तथा सीधा असर हो रहा है। इसका उपयोग कर जनता के विचार, व्यवहार व आदत को परिवर्तित करने में किया जा सकता है।

         ऐसी स्थिति में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जनमाध्यम इतने शक्तिशाली क्यों हैं? इसका जवाब तलाशने के लिए तत्कालीन समाज में कई अध्ययन हुआ। संचार विशेषज्ञ मकॉबी एवं फरक्यूहर ने जनमाध्यमों के प्रभाव को जानने के लिए तीन शहरों में आठ महीने तक अध्ययन किया। एक शहर में हृदय रोग के नियंत्रण सम्बन्धी संदेशों का प्रचार-प्रसार जनमाध्यमों से किया। दूसरे शहर में जनमाध्यमों के साथ-साथ समूह संचार का भी सहारा लिया तथा तीसरे शहर में कुछ नहीं किया। परिणामत: तीनों शहरों के लोगों की आदतों में काफी अंतर देखने को मिला। जनमाध्यमों से हृदय रोग के नियंत्रण सम्बन्धी संदेशों से परिचित होने के कारण पहले व दूसरे शहर के लोगों के खानपान व जीवन शैली में काफी अंतर आ गया। लोग नियमित व्यायाम करने लगे। यह असर पहले शहर की अपेक्षा दूसरे शहर के लोगों पर कुछ ज्यादा ही था, क्योंकि वहां जनमाध्यम के साथ-साथ समूह संचार का भी उपयोग किया गया था। तीसरे शहर के लोगों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। अत: बुलेट सिद्धांत के तहत सम्प्रेषित संदेश एक-चरणीय होता है, जिसे ग्रहण करने वाले प्रापकों का अपना कोई विवेक नहीं होता है।

विशेषताएं : बुलेट सिद्धांत में...

  1.  संचारक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, प्रापक की नहीं।
  2.  संचारक का लक्ष्य स्पष्ट होने पर सकारात्मक परिणाम मिलता है।
  3.  प्रापक की न तो कोई स्वतंत्र विचारधारा होती है और न तो कोई अवधारणा। 
  4.  प्रापक की आवश्यकता को जाने बगैर ही संदेश का निर्माण किया जाता है।
  5.  जनमाध्यमों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। 

आलोचना : मनोवैज्ञानिक हैडले कैंटरिल ने बुलेट सिद्धांत की आलोचना की है। इनका कहना है कि बुलेट सिद्धांत से सम्प्रेषित संदेश भले ही समान रूप से सभी प्रापकों के पास पहुंचता है, लेकिन समान रूप से सभी प्रापकों पर अपना प्रभाव उत्पन्न नहीं करता है। इसकी पुष्टि के लिए अपने अध्ययन के दौरान कैंटरिल ने च्दी वार आफ द वल्र्डजज् नामक रेडियो नाटक को समाचार शैली पर सम्प्रेषित किया। इसे सुनने वालों ने माना कि उनके देश पर दूसरे ग्रहों के प्राणियों का हमला होने वाला है, लेकिन इसका प्रभाव सभी स्रोताओं पर एक समान नहीं था। कैंटरिल ने अपने अध्ययन के दौरान श्रोताओं के विभिन्न व्यक्तित्व जैसे- शैक्षणिक स्तर, तर्क शक्ति की क्षमता आदि का विशेषण किया तो पाया कि व्यक्तित्व में अंतर के कारण जनमाध्यमों के प्रति श्रोताओं की प्रतिक्रियाएं भिन्न-भिन्न होती है। प्रोफेसर पॉल ए$फ.लेजर्सफेल्ड ने भी बुलेट सिद्धांत की आलोचना की है। इनके अनुसार- समाज में कई ऐसे सामाजिक व  मनोवैज्ञानिक कारक मौजूद हैं जो जनमाध्यमों व प्रापकों के बीच महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन कारकों का उल्लेख प्रो. लेजर्सफेल्ड ने अपने व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत के अंतर्गत् उल्लेख किया है। 


(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

ऑसगुड-श्राम का संचार प्रारूप (Osgood-Schramm’s Modal of Communication)


        चाल्र्स ई.ऑसगुड मनोभाषा विज्ञानी थे, जिन्होंने सन् 1954 में अपना संचार प्रारूप विकसित किया, जो पूर्व के प्रारूपों से बिलकुल भिन्न है। ऑसगुड के अनुसार- संचार की प्रक्रिया गत्यात्मक व परिवर्तनशील होती है, जिसमें भाग लेने वाले प्रत्येक प्रतिभागी (संचारक व प्रापक) संदेश सम्प्रेषण व ग्रहण करने के साथ-साथ कूट रचना या संकेतीकरण (Encoding), कूट वाचन या संकेत ग्राहक (Decoding) तथा संदेश की व्याख्या का कार्य भी करते हैं। अत: दोनों को व्याख्याकार (Interpretor) की भूमिका निभानी पड़ती है। ऑसगुड का मानना है कि संचार की गत्यात्मक व परिवर्तनशील प्रक्रिया के कारण एक समय ऐसा आता है, जब संदेश सम्प्रेषित करने वाले संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक की तथा कुछ देर बाद पुन: संचारक की हो जाती है। इसी प्रकार, सूचना ग्रहण करने वाले प्रापक की भूमिका भी क्रमश: बदलकर संचारक तथा कुछ देर बाद पुन: प्रापक की हो जाती है। संचारक व प्रापक की भूमिका के परिवर्तन में संदेश की व्याख्या का महत्वपूर्ण स्थान होता है। 

        इसे विलबर श्राम ने प्रारूप का रूप दिया, जिसे सर्कुलर प्रारूप कहते है। ऑसगुड-श्राम के सर्कुलर प्रारूप को निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है :- 


        उपरोक्त संचार प्रारूप के संदर्भ में ऑसगुड-श्राम का मानना है कि संदेश सम्प्रेषित करना और ग्रहण करना स्वाभाविक रूप से भले ही दो अलग-अलग कार्य हो, लेकिन मानव दोनों कार्यों को एक ही समय में करता है। अत: संचार की दृष्टि से दोनों एक ही कार्य है। इस प्रारूप में संदेश संप्रेषित करने वाले- संचारक और संदेश ग्रहण करने वाले- प्रापक को व्याख्याकार (Interpretor) कहा गया है। व्याख्याकार पहले संकेतों के रूप में संदेश की रचना करता है, फिर उसे सम्प्रेषित करता है। तब वह कूट लेखक व संकेत प्रेषक (Encoder) की भूमिका में होता है। उसे ग्रहण करने वाला कूट वाचक व संकेत ग्राह्यता (Decoder) होता है, क्योंकि वह संदेश के अर्थ को समझने के लिए व्याख्याकार (Interpretor) की भूमिका को निभाता है। इसके बाद कूट वाचक या संकेत ग्राह्यता अपनी प्रतिक्रिया की कूट/संकेत में भेजते समय कूट प्रेषक (Encoder) बन जाता है, जबकि उसे प्राप्त करने वाला कूट वाचक (Decoder  होता है। इस तरह, दोनों (संचारक व प्रापक) व्याख्याकार होते हैं। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है, जिसके कारण ऑसगुड-श्राम के प्रारूप को सर्कुलर प्रारूप कहा जाता है।


(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

लॉसवेल फार्मूला (Lasswell’s Formula)

         हेराल्ड डी. लॉसवेल अमेरिका के प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री हैं, लेकिन इनकी दिलचस्पी संचार शोध के क्षेत्र में थी। इन्होंने ने सन् 1948 में संचार का एक शाब्दिक फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसे दुनिया का पहला व्यवस्थित प्रारूप कहा जाता है। यह फार्मूला प्रश्न के रूप में था। लॉसवेल के अनुसार-  संचार की किसी प्रक्रिया को समझने के लिए सबसे बेहतर तरीका निम्न पांच प्रश्नों के उत्तर को तलाश करना। यथा- 
  1.  कौन (who)
  2. क्या कहा (says what)
  3. किस माध्यम से (in which channel),
  4. किससे (To whom) और
  5. किस प्रभाव से (with what effect)।
        इसे निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है :- 

                       
         इन पांच प्रश्नों के उत्तर से जहां संचार प्रक्रिया को आसानी से समझे में सहुलित मिलती है, वहीं संचार शोध के पांच क्षेत्र भी विकसित होते हैं, जो निम्नांकित हैं :-
1. Who                                       Communicator Analysis संचारकर्ता विश्लेषण
2. Saya what                              Massige Analysia               अंतर्वस्तु विश्लेषण
3. In Which channel                    Mediam Analysis              माध्यम विश्लेषण
4. To whom                               Audience Analysis               श्रोता विश्लेषण
5.with what effect                      Impact Analysis                प्रभाव विश्लेषण

         हेराल्ड डी. लॉसवेल ने शीत युद्ध के दौरान अमेरिका में प्रचार की प्रकृति, तरीका और प्रचारकों की भूमिका विषय पर अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने पाया कि आम जनता के विचारों, व्यवहारों व क्रिया-कलापों को परिवर्तित या प्रभावित करने में संचार माध्यम की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसी आधार पर लॉसवेल ने अरस्तु के संचार प्रारूप के दोषों को दूर कर अपना शाब्दिक संचार फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसमें अवसर के स्थान पर संचार माध्यम का उल्लेेख किया। लॉसवेल ने अपने संचार प्रारूप का निर्माण बहुवादी समाज को केंद्र में रखकर किया, जहां भारी संख्या में संचार माध्यम और विविध प्रकार के श्रोता मौजूद थे। हेराल्ड डी. लॉसवेल ने अपने संचार प्रारूप में फीडबैक को प्रभाव के रूप में बताया है तथा संचार प्रक्रिया के सभी तत्त्वों को सम्मलित किया है।

        लॉसवेल फार्मूले की सीमाएं : स्कूल ऑफ सोशियोलॉजी, शिकागो के सदस्य रह चुके हेराल्ड डी.लॉसवेल का फार्मूले को संचार प्रक्रिया के अध्ययन की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय लोकप्रियता मिली है। इसके बावजूद संचार विशेषज्ञों इसे निम्नलिखित सीमा तक ही प्रभावी बताया है :-
  1. लॉसवेल का फार्मूला एक रेखीय संचार प्रक्रिया पर आधारित है, जिसके कारण सीधी रेखा में कार्य करता है। 
  2. इसमें फीडबैक को स्पष्ट रूप से दर्शाया नहीं गया है। 
  3. संचार की परिस्थिति का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है।
  4. संचार को जिन पांच भागों में विभाजित किया गया है, वे सभी आपस में अंत:सम्बन्धित हंै।
  5. संचार के दौरान उत्पन्न होने वाले व्यवधान को नजर अंदाज किया गया है। 
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(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

संचार का SMCR प्रारूप (SMCR Modal of Communication)


           डेविड के. बरलो ने सन् 1960 में अपना संचार प्रारूप प्रस्तुत किया, जो आचार संहिता विज्ञान पर आधारित है। बरलो का SMCR प्रारूप निम्न लिखित है :-
 

       बरलो के प्रारूप में  S-M-C-R का अर्थ है :-

                 S          :           Source (प्रेषक)
                M         :           Message (संदेश)
                C          :           Channel (माध्यम)
                R          :           Receiver (प्रापक)

  1. प्रेषक (Source) : स्रोत एक व्यक्ति होता है। इसके प्रभाव को जानने के लिए व्यक्ति के गुणों को जानना जरूरी है। इसका विश्लेषण प्रेषक के संचार कौशल, व्यवहार, ज्ञान, समाज व्यवस्था व संस्कृति के आधार पर किया जा सकता है।
  2. संदेश (Message) : संदेश किसी भी भाषा या चित्र के माध्यम से दिया जा सकता है। प्रेषक संदेश की संरचना अपने तरीके से करता है। जैसे- भाषाई दृष्टि से हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी इत्यादि तथा चित्रात्मक दृष्टि से फिल्म, फोटोग्राफ इत्यादि के रूप में। संदेश संरचना के बाद प्रेषक उसे अपने तरीके से सम्प्रेषित करता है, जिसका विश्लेेषण तत्व, अंतर्वस्तु, ढांचा, उपचार व कूट इत्यादि के स्तर पर किया जा सकता है।
  3. माध्यम ( Channel) : माध्यम की मदद से संदेश प्रापक तक पहुंचता है। संचार के दौरान प्रेषक द्वारा कई प्रकार के माध्यमों का उपयोग किया जा सकता है। प्रापक देखकर, सुनकर, स्पर्श कर, सुंघ कर तथा चखकर संदेश को ग्रहण कर सकता है।
  4. प्रापक (Receiver ) : संदेश को ग्रहण करने में प्रापक का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यदि प्रापक की सोच सकारात्मक होती है तो संदेश अर्थपूर्ण होता है। इसके विपरीत, प्रेषक के प्रति नकारात्मक सोच होने की स्थिति में संदेश भी अस्पष्ट होता है।

          बर्लोज के संचार प्रारूप में संचार प्रक्रिया का उल्लेख नहीं है। यदि इसका विश्लेषण करें तो यह मुख्य रूप से संचार प्रक्रिया में मानवीय तत्व की भूमिका अथवा प्रक्रिया से जुड़ा है। यह भूमिका प्रेषक, संदेश, संचार माध्यम एवं प्रापक इत्यादि के रूप में जुड़ी हो सकती है। अत: बर्लोज का स्रूष्टक्र प्रारूप पूर्णता युक्त नहीं है।
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(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 7018381096 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

संचार प्रारूप (Communication Modal)


        पृथ्वी पर मानव सभ्यता के साथ जैसे-जैसे संचार प्रक्रिया का विकास होता गया, वैसे-वैसे संचार के प्रारूपों का भी। अत: संचार का अध्ययन प्रारूपों के अध्ययन के बगैर अधूरा माना जाता है। समाजिक विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों जैसे- समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान, संचार शास्त्र, प्रबंध विज्ञान इत्यादि के अध्ययन, अध्यापन व अनुसंधान में प्रारूपों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। समाज वैज्ञानिकों व संचार विशेषज्ञों ने अपने-अपने समय के अनुसार संचार के विभिन्न प्रारूपों का प्रतिपादन किया है। सामान्य अर्थों में हिन्दी भाषा के च्प्रारूपज् शब्द से अभिप्राय रेखांकन से लिया जाता है, जिसे  अंग्रेजी भाषा रूशस्रड्डद्य में कहते हैं। 
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार- च्प्रारूप से अभिप्राय किसी वस्तु को उसके लघु रूप में प्रस्तुत करना है।ज् प्रारूप वास्तविक संरचना न होकर उसकी संक्षिप्त आकृति होती है। जैसे- पूरी दुनिया को बताने के लिए छोटा सा च्ङ्गलोबज्। किसी सामाजिक घटना अथवा इकाई के व्यवहारिक स्वरूप को बताने के लिए अनुभव के सिद्धांत के आधार पर तैयार की गई सैद्धांतिक परिकल्पना को प्रारूप कहते हैं। दूसरे शब्दों में- प्रारूप किसी घटना अथवा इकाई का वर्णन मात्र नहीं होता है, बल्कि उसकी विशेषताओं को भी प्रदर्शित करता है। प्रारूप के माध्यम से व्यक्त की जाने वाली जानकारी या सूचना, वास्तविक जानकारी या सूचना के काफी करीब होता है। इस प्रकार, प्रारूप देखने में भले ही काफी छोटा होता है, लेकिन अपने अंदर वास्तविकता की व्यापकता को समेटे होता है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने प्रारूप को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :-
  • प्रारूप प्रतीकों एवं क्रियान्वित नियमों की एक ऐसी संरचना है, जो किसी प्रक्रिया के अस्तित्व से सम्बन्धित बिन्दुओं के समानीकरण के लिए संकल्पित की जाती है।
  • प्रारूप संचार यथा- घटना, वस्तु, व्यवहार का सैद्धान्तिक तथा सरलीकृत प्रस्तुतिकरण है।
  • किसी घटना, वस्तु अथवा व्यवहारात्मक प्रक्रिया की चित्रात्मक, रेखात्मक या वाचिक अभिव्यक्ति का प्रारूप है।
  • प्रारूप एक ऐसी विशेष प्रक्रिया या प्रविधि है, जिसे किसी अज्ञात सम्बन्ध अथवा वस्तुस्थिति की व्याख्या के लिए संदर्भ बिन्दु के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
        संचार एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है। परिवर्तनशीलता के अनुपात में संचार प्रक्रिया की जटिलता घटती-बढ़ती रहती है। संचार प्रारूप सिद्धांतों पर आधारित संचरना होती है, जिसमें व्यक्ति व समाज पर पडऩे वाले प्रभावों की अवधारणाओं को भी सम्मलित किया जाता है। अत: संचार प्रारूप की संरचना संचार प्रक्रिया की समझ व परिभाषा पर निर्भर करती है। संचार शास्त्री डेविटो के शब्दों में- संचार प्रारूप संचार की प्रक्रियाओं व विभिन्न तत्वों को संगठित करने में सहायक होती है। ये प्रारूप संचार के नये-नये तथ्यों की खोज में भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अनुभवजन्य व अन्वेषणात्मक कार्यों द्वारा ये प्रारूप भावी अनुसंधान के लिए संचार से सम्बन्धित प्रश्नों का निर्माण करते हैं। इन प्रारूपों की मदद से संचार से सम्बन्धित पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। संचार की विभिन्न प्रक्रियाओं व तत्वों का मापन किया जा सकता है।  
एक तरफा संचार प्रारूप
(One-way Communication Modal)

संचार का यह प्रारूप तीर की तरह होता है, जिसके अंतर्गत संचारक अपने सदेश को सीधे प्रापक के पास प्रत्यक्ष रूप से सम्प्रेषण करता है। इसका तात्पर्य यह है कि एक तरफ संचार प्रारूप के अंतगर्त केवल संचारक अपने विचार, जानकारी, अनुभव इत्यादि को सूचना के रूप में सम्प्रेषित करता है। उपरोक्त सूचना के संदर्भ में प्रापक अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है अथवा प्रतिक्रिया करता है तो संचारक उससे अंजान रहता है। एक तरफा संचार प्रक्रिया की परिकल्पना सर्वप्रथम हिटलर और रूजवेल्ट जैसे तानाशाह शासकों ने की, लेकिन इसका प्रतिपादन २०वीं शताब्दी के तीसरे दशक के दौरान अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों ने किया। अमेरिकी प्रतिरक्षा विभाग ने कार्ल होवलैण्ड की अध्यक्षता में अस्त्र परिचय कार्यक्रम का मूल्यांकन करने के लिए गठित मनोवैज्ञानिकों की एक विशेष कमेटी ने अपने अध्ययन के द्वारा पाया कि संचारक द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सम्प्रेषित संदेश का प्रापकों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। इस अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट 1949 में प्रकाशित हुई। इसको अद्यो्रलिखित रेखाचित्र द्वारा समझा जा सकता है :- 
  
          इस प्रारूप से स्पष्ट है कि सूचना का प्रवाह संचारक से प्रापक तक एक तरफा होता है, जिसमें संचार माध्यम मदद करते हैं। रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र इत्यादि की मदद से सूचना का सम्प्रेषण एक तरफा संचार का उदाहरण है। इस प्रारूप का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें सूचना के प्रवाह को मात्र संचार माध्यमों की मदद से दर्शाया गया है, जबकि समाज में सूचना का प्रवाह बगैर संचार माध्यमों के प्रत्यक्ष भी होता है। 

दो तरफा संचार प्रारूप
(Two- way Communication Modal)

        संचार के इस प्रारूप में संचारक और प्रापक की भूूमिका समान होती है। दोनों अपने-अपने तरीके से संदेश सम्प्रेषण का कार्य करते हैं। प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने बैठकर संदेश सम्प्रेषण के दौरान रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र जैसे संचार माध्यमों की जरूरत नहीं पड़ती है। दो तरफा संचार प्रारूप में संचारक और प्रापक को समान रूप से अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। संचारक और प्रापक के आमने-सामने न होने की स्थिति में दो तरफा संचार के लिए टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल, एसएमएस, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, चैटिंग, अंतर्देशीय व पोस्टकार्ड जैसे संचार माध्यम की जरूरत पड़ती है। इसमें टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल व एसएमएस, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स व चैटिंग अत्याधुनिक संचार माध्यम है, जिनका उपयोग करने से संचारक और प्रापक के समय की बचत होती है, जबकि अंतर्देशीय व पोस्टकार्ड परम्परागत संचार माध्यम है, जिसमें संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश को प्रापक तक पहुंचने में पर्याप्त समय लगता है। समाज में दो तरफा संचार माध्यम के बगैर भी होता है। पति-पत्नी, गुरू-शिष्य, मालिक-नौकर इत्यादि के बीच वार्तालॉप की प्रक्रिया दो तरफा संचार का उदाहरण है।

       उपरोक्त प्रारूप से स्पष्ट है कि सूचना का प्रवाह संचारक से प्रापक की ओर होता है। समय, काल व परिस्थिति के अनुसार संचारक और प्रापक की भूमिका बदलती रहती है। संचारक से संदेश ग्रहण करने के उपरान्त प्रापक जैसे ही अपनी बात को कहना शुरू करता है, वैसे ही वह संचारक की भूमिका का निर्वाह करने लगता है। इसी प्रकार उसकी बात को सुनते समय संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक की हो जाती है। 

समाजीकरण में संचार की भूमिका (Role of Communication in Socialization)


        मानव की सामाजिक व सांस्कृतिक परम्पराओं के स्थानांतरण की प्रक्रिया को सामाजीकरण कहते हैं। यह स्थानांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक होता है, जिसमें संचार की भूमिका महत्वपूर्ण होती हैं। सामाजिक निरंतरता को बनाए तथा बचाए रखने के लिए संचार के विविध विधाओं का होना अनिवार्य है। इसकी अनिवार्यता का अनुमान बड़े ही आसानी से लगाया जा सकता है, क्योंकि समाजीकरण की प्रत्येक क्रिया संचार पर ही निर्भर हैं। उदाहरणार्थ, मानव संचार की मदद से जैसे-जैसे सांस्कृतिक अभिवृत्तियों, मूल्यों और व्यवहारों को आत्मसात करता जाता है, वैसे-वैसे जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी बनता जाता है। इस प्रकार, संचार तथा सामाजिक जीवन के बीच काफी गहरा सम्बन्ध परिलक्षित होता है। सामाजिक सम्बन्धों के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना जरूरी है। पानी-गिलास, कलम-दवात, पंखा-बिजली के बीच सम्बन्ध होता है, लेकिन उसे सामाजिक सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि इनके बीच मानसिक जागरूकता का अभाव होता है। अत: मानसिक जागरूकता के अभाव में सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण संभव नहीं है। वर्तमान समाज में संचार ने एक महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका को अधिग्रहित कर लिया है। विशेषज्ञों का दावा है कि संचार के विविध माध्यमों की तीन महत्वपूर्ण सामाजिक प्रक्रियाएं हैं- समाजीकरण, सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक नियंत्रण। संचार समाजीकरण का प्रमुख माध्यम हैं। 

        आज से करीब पांच लाख साल पूर्व कन्दराओं में रहने वाले (आदि) मानव ने अपनी ध्वनि तथा वाक्शक्ति के आधार पर मौखिक संचार की जिस सतत् सकारात्मक परम्परा की शुरूआत की, वह वर्तमान में भी जारी हैं। सभ्यता के प्रारंभ में मानव के पास केवल आवाज थी, तब परिवार (प्राथमिक समूह) द्वारा मौखिक संचार के रूप में समाजीकरण का कार्य किया जाता था। इस संदर्भ में समाजशास्त्री जेल्डिच ने अध्ययन किया, जिसका विषय था- ट्टसमाजीकरण में माता-पिता की भूमिकाट्ट । अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि सभी समाजों में पिता- साधक नेतृत्व (Instrumental Leadership) तथा माता- भावनात्मक नेतृत्व (Expressive Leadership) प्रदान करते हैं। सभ्यता के विकास के साथ-साथ समाजीकरण के अभिकरणों का भी विकास हुआ। परिणामत: परिवार के साथ-साथ क्रीड़ा समूह, पास-पड़ोस, नातेदार तथा विवाह जैसी संस्थाएं भी समाजीकरण का कार्य करने लगी।

         कालांतर में लिपि का आविष्कार होने से शिक्षण संस्थाए (Educational Institutions) भी समाजीकरण के अभिकरण (साधन) बन गये। हालांकि इससे प्राथमिक समूह की भूमिका में किसी प्रकार की कमी तो नहीं आयी, लेकिन लोगों को सार्वजनिक रूप से समाजीकरण के क्षेत्र में शिक्षण संस्थाओं की भागीदारी को स्वीाकर करना पड़ा। तब शिक्षण संस्थाओं में हस्तलिखित पोथियों का उपयोग किया जाता था। तत्कालीक मानव के लिए सीमित संख्या वाली ये पोथियां अद्भूत वस्तुएं थी, जिनके आदर में लोगों का शीश सदैव झुका रहता था। इन पोथियों को लिखित संचार का प्रारंभिक माध्यम कहा जाता है। मुद्रण के आविष्कार व विकास के बाद पोथियां की जगह को पुस्तकों ने अधिग्रहित कर लिया, जिससे लिखित संचार माध्यम को विस्तार मिला। तब समाज में प्राथमिक समूह के साथ-साथ शिक्षण संस्थानों व पुस्तकों के माध्यम से भी समाजीकरण होने लगा। तत्कालीन समाज में मुद्रण तकनीकी आश्चर्यजनक संचार माध्यम के रूप में उभरा। इसके बाद समाज का जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे संचार के माध्यमों का भी। परिणामत: समाचार पत्र, पत्रिकाएं, रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टेलीफोन, मोबाइल इत्यादि संचारमाध्यम समाजीकरण के कार्य में जुटे है। समाज में संचार माध्यमों की बहुलता के कारण लोगों के पास एक ही संदेश कई माध्यमों से आने लगे हैं, जिससे संदेशों के पुष्टिकरण की समस्या का भी काफी हद तक समाधान हो गया है। भारतीय समाजशास्त्री श्यामा चरण दूबे के अनुसार- मानव जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी तब बनता है, जब वह संचार के माध्यम से सांस्कृतिक अभिवृत्तियों, मूूल्यों और व्यवहारजन्य प्रतिमानों को आत्मसात कर लेता है। इनका दावा है कि सांस्कृतिक निरंतरता को संचार माध्यमों पर आधारित सामाजिक प्रक्रिया है। व्यक्ति, समाज व मूल्यों के बीच परस्पर आदान-प्रदान से सम्बन्ध स्थापित होता है, जिससे सांस्कृतिक निरंतरता को गति मिलती है। इस प्रक्रिया में संचार माध्यम महत्वपूूर्ण भूमिका निभाते है।

मानव में बुद्धि, तर्क, भाषा, अभिव्यक्ति, संस्कृति इत्यादि के रूप में कई नैसर्गिक गुणों का समावेश होता है। जिनकी मदद से वह भौतिक माध्यमों द्वारा सम्प्रेषित संदेशों का मूल्यांकन करता है। संचार की विभिन्न विधाएं समाजीकरण के साथ-साथ सामाजिक निरंतरता को बनाये रखने का कार्य करती हैं। सामाजिक विचारक विलियम्स के अनुसार- नई सूचना प्रौद्योगिकी के कारण एक नई भौतिक संस्कृति विकसित हुई है। साथ ही सामाजिक आविष्कारों के रूप में संचार माध्यमों का सामाजीकरण व सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान है। भौतिक आविष्कारों ने मानव जीवन को प्रभावित किया है। इसका उदाहरण है- मताधिकार का प्रयोग, स्त्री शिक्षा का प्रसार, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति, अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों का उन्मूलन, जिसे प्रतिस्थापित करने में संचार माध्यमों की सबसे अहम भूमिका रही हैं। उपरोक्त सामाजिक बुराईयों के समूलनाश के लिए सबसे पहले संचार माध्यमों ने ही जन-जागरण अभियान प्रारंभ किया। इससे नये सामाजिक मूल्यों की प्रतिस्थापना हुई, जो सामाजिक परिवर्तन और समाजीकरण के कारण बनें।  

निष्कर्ष
       सामाजीकरण का मूल आधार संचार ही है। मानव-शिशु संसार में पशु की आवश्यकताओं से युक्त एक जैविकीय प्राणी के रूप में जन्म लेता है तथा समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सामाजिक प्राणी बनता है। इस प्रक्रिया के बिना न तो समाज जीवित रह सकता है, न तो संस्कृति बच सकती है और न तो सामाजिक मनुष्य का निर्माण हो सकता है। समाजीकरण की प्रक्रिया में संचार माध्यमों की भूूमिका महत्वपूर्ण होती है। आधुनिक संचार माध्यमों के विकास के साथ-साथ समाजीकरण की प्रक्रिया में भी बदलती रहती है। इन परिवर्तनों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि संचार माध्यमों के सामाजिक दायित्वों की जहां बढ़ोत्तरी हुई है, वहीं आधुनिक समाज भी संचार माध्यमों पर ही पूरी तरह से आश्रित हो गया है। प्रारंभ में जब संचार माध्यमों का विकास नहीं हुआ था, तब समाजीकरण का एक माध्यम साधन मौखिक संचार था, जिसमें परिवार नामक प्राथमिक समूह के सदस्य भाग लेते थे। यह प्रक्रिया काफी सीमित थी। मुद्रण तकनीकी के विकास से लोगों को पुस्तकों की सुविधा मिली, जिसके कारण ज्ञान के क्षेत्र विस्तृत हुआ। समाचार पत्र, पत्रिका रेडियो, टेलीविजन, मोबाइल, इंटरनेट इत्यादि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के आगमन से सीखने की प्रक्रिया में ढेरों सूचना संदेश उपलब्ध हो सके। 

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